कैसे माफ़ करूँ कैकेयी को...

कैसे माफ़ करूँ कैकेयी को

(लेखक – रूपेश रंजन)

कैसे माफ़ करूँ कैकेयी को,
जिसने मेरे राम को वनवास दिया,
जिसने एक जननी होते हुए भी,
धर्म का चीरहरण कर दिया।

जिसकी आँखों में लोभ का धुआँ भरा,
जिसके मन में मातृत्व का दीपक बुझा,
जिसने राज्य के मोह में खो दी बुद्धि,
और प्रेम का आँचल सदा के लिए सुखा।

कैसे भूलूँ वह क्षण,
जब अयोध्या का आँगन सूना हो गया,
जब दशरथ की साँसें टूट गईं,
जब सीता के नयनों का नूर खो गया।

राम, जो साक्षात धर्म का स्वरूप,
फिर भी विनम्र, न झुके, न रूठे,
जिन्होंने अन्याय को भी स्वीकार किया,
माँ की आज्ञा को भगवान का आदेश समझा।

क्या यही धर्म था, क्या यही नीति थी?
कि पुत्र का त्याग, माँ के वचन से भारी नहीं,
पर किसने सोचा, उस वचन के नीचे,
कितने हृदय कुचले गए सही।

कैकेयी... तेरा नाम बन गया प्रतीक,
राजनीति का, स्त्री की भूल का,
पर क्या तू अकेली दोषी थी,
या यह खेल था भाग्य और काल का?

दशरथ भी तो बंधे थे वचन में,
शक्ति थी पर विवश थे,
कौन सा पिता चाहेगा वियोग,
अपने पुत्र के अश्रु देखने को।

राम गए, वन का रास्ता अपनाया,
सीता साथ चली, लक्ष्मण भी आया,
तीनों ने त्याग की परिभाषा रच दी,
जो आज भी आदर्श कहलाया।

पर अयोध्या का हर कोना रोया,
हर दीपक बुझा, हर मन खोया,
निशब्द हो गई थी हवाएँ,
जैसे धरती ने मौन व्रत लिया हो।

कैकेयी के महल में शांति नहीं थी,
उसके मन में भी तूफ़ान था,
सिंहासन मिला, पर नींद खो गई,
विजय में भी अपराध का गान था।

वह सोचती थी —
क्या मैंने सच में किया जो सही?
या अपने पुत्र भरत को भी अभिशाप दे दिया वही।

भरत ने जो कहा —
"माँ, तूने मुझे लज्जित किया!"
वो शब्द तीर थे, जो
कैकेयी के हृदय में धँस गए सदा।

राम वन में, सीता संग,
धर्म निभाते रहे, नीति गाते रहे,
रावण जैसे अधर्मी को भी
नीति से हराते रहे।

वो राम — जिन्होंने माफ़ किया,
हर शत्रु को, हर अपराधी को,
पर क्या उन्होंने कैकेयी को भी
मन से माफ़ किया था?
शायद हाँ... क्योंकि वो राम थे।

उन्होंने कहा —
“माता वही, जो जन्म दे,
चाहे दुख दे, चाहे सुख दे।
माँ का वचन ही भगवान का आदेश है,
उसमें भी भक्ति का देश है।”

पर मैं?
मैं मनुष्य हूँ... मेरा मन द्रवित है,
मेरे भीतर क्षमा नहीं, केवल वेदना है।

कैसे माफ़ करूँ कैकेयी को,
जिसने धर्मराज को भटकाया,
जिसने स्नेह का बंधन तोड़ा,
जिसने युगों तक मातृत्व को कलंकित बताया।

पर जब सोचता हूँ —
यदि कैकेयी न होती, तो
राम का त्याग, उनका धर्म,
कैसे प्रकट होता इस धरा पर?

शायद वही उसके अपराध का प्रायश्चित था,
कि उसी के कारण,
राम “मर्यादा पुरुषोत्तम” कहलाए।

तो क्या उसे माफ़ कर दूँ?
क्या अपने हृदय से वह द्वेष मिटा दूँ?
शायद यही राम का मार्ग है,
क्षमा का, करुणा का, त्याग का।

कैकेयी — तू अंधकार थी,
पर उसी से प्रकाश निकला,
तू भूल थी, पर उसी भूल से
भविष्य का धर्म अक्षुण्ण रहा।

आज समझ पाया हूँ मैं,
कि दोष और पुण्य, दोनों काल के खेले हैं,
हर पात्र नियति का वाद्य है,
जो रचता है समय का संगीत।

अब मैं कह सकता हूँ —
माफ़ कर दी तुझे, हे कैकेयी,
क्योंकि तेरे बिना राम अधूरे थे,
तेरे बिना “वनवास” का अर्थ अधूरा था,
तेरे बिना “रामायण” अपूर्ण थी।

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