अम्बेडकर और जाति-प्रथा की आलोचना: आधुनिक परिप्रेक्ष्य में प्रासंगिकता

  


अम्बेडकर और जाति-प्रथा की आलोचना: आधुनिक परिप्रेक्ष्य में प्रासंगिकता

भूमिका

भारतीय समाज का ढाँचा सदियों से जाति-आधारित विभाजनों पर आधारित रहा है। यह व्यवस्था जहाँ एक ओर सामाजिक अनुशासन का माध्यम कही गई, वहीं दूसरी ओर इसने असमानता, भेदभाव और शोषण को भी जन्म दिया। डॉ. भीमराव रामजी अम्बेडकर ने इस जाति-व्यवस्था को भारतीय समाज की सबसे बड़ी बुराई माना और इसके उन्मूलन के लिए आजीवन संघर्ष किया। उन्होंने कहा था — “जाति भारत की रीढ़ नहीं, बल्कि उसकी कमजोरी है।”

अम्बेडकर की दृष्टि में जाति-व्यवस्था

अम्बेडकर के अनुसार जाति कोई प्राकृतिक व्यवस्था नहीं थी, बल्कि यह मानव-निर्मित सामाजिक तंत्र था, जिसने व्यक्ति की योग्यता को उसके जन्म से बाँध दिया। उन्होंने ‘जाति का विनाश’ (Annihilation of Caste) नामक अपने ऐतिहासिक भाषण में कहा —

“जाति न केवल सामाजिक असमानता को जन्म देती है, बल्कि यह व्यक्ति की स्वतंत्रता को भी समाप्त कर देती है।”

अम्बेडकर मानते थे कि जब तक समाज जातीय भेदभाव से मुक्त नहीं होगा, तब तक न तो सामाजिक न्याय संभव है और न ही लोकतंत्र की सच्ची भावना फल-फूल सकती है।

जाति और धर्म का संबंध

अम्बेडकर ने हिंदू धर्म की वर्णव्यवस्था की गहराई से आलोचना की। उनके अनुसार धर्म का उद्देश्य मानव-कल्याण होना चाहिए, परंतु जब धर्म किसी को ऊँच-नीच में बाँट देता है, तो वह मानवता के विरुद्ध हो जाता है। उन्होंने स्पष्ट कहा कि “धर्म यदि समानता नहीं सिखाता, तो वह धर्म नहीं, अधर्म है।”

यही कारण था कि उन्होंने 1956 में लाखों अनुयायियों के साथ बौद्ध धर्म स्वीकार किया — एक ऐसा धर्म जो समानता, करुणा और बुद्धि पर आधारित था।

आधुनिक भारत में जाति की प्रासंगिकता

आज के तकनीकी, लोकतांत्रिक और शिक्षित भारत में भी जाति-आधारित पहचान और भेदभाव पूरी तरह समाप्त नहीं हुआ है। राजनीति में जातिगत समीकरण, विवाह में जाति की शर्तें, और समाज में सामाजिक दूरी अब भी दिखाई देती हैं।

अम्बेडकर की शिक्षाएँ आज भी हमें यह याद दिलाती हैं कि सामाजिक परिवर्तन केवल कानून से नहीं, बल्कि सोच के परिवर्तन से आता है। जब तक व्यक्ति अपने मन से जातिगत श्रेष्ठता या हीनता का भाव नहीं मिटाएगा, तब तक सच्चा सामाजिक न्याय संभव नहीं होगा।

अम्बेडकर का समाधान: शिक्षा, आत्म-सम्मान और संगठन

अम्बेडकर ने दलितों और पिछड़े वर्गों को तीन सूत्र दिए —

  1. शिक्षित बनो (Educate)
  2. संगठित रहो (Organize)
  3. संघर्ष करो (Agitate)

ये तीनों उनके सामाजिक क्रांति के मूल स्तंभ थे। शिक्षा से व्यक्ति में जागरूकता आती है, संगठन से शक्ति, और संघर्ष से परिवर्तन।

निष्कर्ष

डॉ. अम्बेडकर की जाति-प्रथा के प्रति आलोचना केवल एक सामाजिक प्रश्न नहीं थी, बल्कि यह मानवता की गरिमा की पुनर्स्थापना का आंदोलन था। आज जब समाज फिर से वर्ग, धर्म और जाति के नाम पर विभाजित होता दिखाई देता है, तब अम्बेडकर के विचार पहले से कहीं अधिक प्रासंगिक प्रतीत होते हैं।

उनकी दृष्टि में भारत तभी सशक्त और लोकतांत्रिक बन सकता है जब हर व्यक्ति को समान अवसर, समान सम्मान और समान न्याय मिले।



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