एक औरत संघर्ष कर रही है ... (Part 1)

बरसात हो रही है।
भारी बारिश।
मौसमी(मानसूनी) बारिश।
जून-जुलाई का समय है।
चारों ओर सब कुछ भींगा हुआ है।
आँगन के चारों कोनों से पानी गिर रहा है।
असोरा खपरैल का है, पर हर कमरा छतदार,रसोई को छोड़ कर ।
कहीं-कहीं छत से पानी टपक रहा है।

रसोई में एक औरत संघर्ष कर रही है —
खाना बनाने के लिए, अपने अस्तित्व  को बचाने  के लिए।
गोद में दूधमुंहा बच्चा है,
दो और छोटे बच्चे इधर-उधर भाग रहे हैं,
बारिश की तेज़ बौछारें और हर ओर फैले पानी को देखकर
वे भी हतप्रभ हैं, डरे हुए से।

रसोई का एक हिस्सा टाटी से घिरा है,
ऊपर खपरैल की छत है।
जला‍वन पूरी तरह भीग चुका है।
चावल का तसला चढ़ा हुआ है,
पर आग सुलग नहीं पा रही।
औरत टाटी वाले हिस्से से गीली टाटी खींच-खींचकर
चूल्हे में डालने की कोशिश कर रही है,
लेकिन न लकड़ी सूखी है, न धुआँ रुकता है।
चूल्हे से धुआँ निकल-निकलकर पूरे कमरे में भर गया है।
आँखों में जलन से उसकी आँखें भीग गई हैं —
पता नहीं, धुएँ से या हालात से।

गोद का बच्चा रोने लगा है,
धुएँ से उसका दम घुट रहा है।
बड़ा बच्चा बाहर भागता है —
कुछ सूखी लकड़ियाँ ढूँढ़ने, शायद छप्पर के नीचे कहीं मिल जाएँ।
पर बाहर हर चीज़ गीली है,
धरती से लेकर आसमान तक बस पानी ही पानी है।

और उस बारिश की गंध,
गीली मिट्टी की महक,
भीगे सपनों की भाप,
सब मिलकर उस रसोई के कोने में
एक अधूरी कोशिश की तरह जल रही है —
ठंडी, गीली, पर जीवित।

रूपेश रंजन... 

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