“गांधी और गाँव”

“गांधी और गाँव”






सुबह की पहली किरण जब धरती को छूती,
गांव की पगडंडियों पर जीवन हिलोर लेता,
मिट्टी की सोंधी खुशबू से भरी हवा में,
सत्य और श्रम का गीत बजता।

वहीं कहीं,
एक संत बैठा है,
नंगे पैर,
हाथ में लाठी, मुख पर शांत मुस्कान।

वो कहता है —
“भारत गाँवों में बसता है,
शहर नहीं, आत्मा गाँव की झोपड़ी में जीवित है।”

उसकी वाणी में गंगा की धारा है,
जिसमें बहती है सादगी और करुणा।
वो बताता है —
“जहाँ खेत हरे हैं, वहीं राष्ट्र हरा है।”

गाँव उसके लिए भूगोल नहीं,
एक दर्शन था,
जहाँ श्रम पूजा था,
और सहयोग परम धर्म।

वो कहता —
“शहर की बिजली नहीं,
गाँव की मिट्टी हमें आलोक देती है।”

उसके स्वप्न में हर घर में दीप था,
हर हाथ में काम था,
हर मन में शांति थी,
हर दिल में आत्मनिर्भरता का विश्वास था।

वो चाहता था —
गाँव केवल जीने का स्थान न हो,
बल्कि सीखने, बाँटने और बढ़ने का आश्रम बने।

उसके लिए गाय, खेत, तालाब —
ये सब ग्रंथ थे,
जिनसे जीवन के पाठ मिलते थे।

वो कहता था —
“जिस दिन किसान प्रसन्न होगा,
भारत स्वतः स्वतंत्र हो जाएगा।”

वो शहरों की चकाचौंध से नहीं,
गाँव की मिट्टी से प्रकाश ढूँढता था।

उसने कहा —
“सच्चा स्वराज दिल्ली से नहीं आएगा,
वो तो तब आएगा,
जब गाँव स्वयं निर्णय लेगा।”

उसने ग्राम स्वराज का स्वप्न बुना —
जहाँ हर व्यक्ति राजा है,
हर स्त्री निर्माता है,
हर बालक भविष्य है।

वो सिखाता —
“कृषि केवल उत्पादन नहीं,
प्रकृति के साथ संवाद है।”

वो जानता था —
यदि गाँव जाग जाएगा,
तो भारत आत्मा से अमर होगा।

उसकी कल्पना में गाँव
सिर्फ झोपड़ियों का समूह नहीं,
बल्कि आत्मा का नगर था।

वो कहता —
“हर गाँव में शिक्षा, स्वास्थ्य और श्रम की त्रिवेणी बहनी चाहिए।”

वो बच्चों से कहता —
“चरखा चलाओ,
क्योंकि चरखा केवल सूत नहीं,
राष्ट्र की डोर बुनता है।”

वो किसानों से कहता —
“खेत जोते समय प्रार्थना करो,
क्योंकि अन्न ईश्वर का वरदान है।”

वो स्त्रियों से कहता —
“तुम्हारे हाथों में संस्कार की मिट्टी है,
तुम ही गाँव की आत्मा हो।”

गाँवों की चौपालों में
वो बैठता, सुनता, सिखाता।
न उपदेश देता,
न आदेश —
बस एक मित्र बन जाता।

वो जानता था —
गाँव की हर झोपड़ी
राष्ट्र का पहला विद्यालय है।

वो कहता —
“यदि गाँव स्वस्थ है,
तो भारत निरोग है।”

वो चाहता था —
गाँव अपने लिए बने,
अपने संसाधनों से जिए।
बाहर की मदद नहीं,
भीतर की शक्ति चाहिए।

वो कहता —
“जहाँ श्रम का सम्मान होगा,
वहीं सच्चा भारत खड़ा होगा।”

वो चाहता था —
हर गाँव में चरखा गूंजे,
हर घर में शिक्षा हो,
हर खेत में मुस्कान हो,
हर कुएँ पर समानता हो।

वो जानता था —
शहर बढ़ेंगे,
पर यदि गाँव पिछड़ा रहेगा,
तो भारत आधा रहेगा।

वो कहता —
“राष्ट्र निर्माण खेतों से होता है,
न कि कारखानों से।”

उसके लिए मिट्टी देवता थी,
और हल उसका शस्त्र।
वो कहता —
“जो खेत को नमस्कार करेगा,
वो कभी भूखा नहीं रहेगा।”

वो गाँव की गाय को माता कहता,
उसके गोबर को धन,
उसकी छाया को धर्म।

वो मानता —
गाँव की नदी
सिर्फ जल नहीं बहाती,
वो संस्कृति को संजोती है।

वो हर बच्चे को कहता —
“तुम्हारी मिट्टी तुम्हारी पहचान है,
उसे छोड़ो मत।”

वो गाँव की सादगी में
विश्व की जटिलता का समाधान देखता था।

वो कहता —
“जहाँ लोग मिलकर काम करें,
वहीं लोकतंत्र सच्चा होता है।”

वो ग्राम पंचायत को शक्ति का मंदिर बनाना चाहता था,
जहाँ निर्णय हथियारों से नहीं,
संवाद से हों।

वो कहता —
“हर गाँव में स्कूल,
हर हृदय में करुणा,
यही है मेरा भारत।”

उसके स्वप्न के गाँव में
भेदभाव की दीवार नहीं,
भाईचारे की बाड़ थी।

जहाँ जाति नहीं,
कर्म पहचान था।

वो कहता —
“हर व्यक्ति, चाहे छोटा हो या बड़ा,
उसका सम्मान करो,
क्योंकि वही भारत की जड़ है।”

उसके लिए गाँव
केवल खेती नहीं,
संस्कृति का गहना था।

वो जानता था —
यदि गाँव हँसेंगे,
तो शहर भी मुस्कराएँगे।

उसके सपनों का भारत
कागज़ पर नहीं,
मिट्टी की खुशबू में लिखा था।

वो कहता —
“गाँवों की गरीबी दूर होगी,
जब हम उन्हें सहायता नहीं,
सशक्त बनाएँगे।”

वो चाहता था —
गाँव के बच्चे डॉक्टर बनें,
पर अपनी माँ की मिट्टी को न भूलें।

उसने कहा —
“विकास वो नहीं जो शहर चमकाए,
विकास वो है जो गाँवों को रोशनी दे।”

आज जब शहरों के बीच
गाँव खोने लगे हैं,
तो बापू की वाणी
फिर गूंजती है —
“भारत की आत्मा गाँवों में बसती है।”

उसका सपना अभी अधूरा है,
पर उसकी मिट्टी अब भी जाग रही है,
हर किसान, हर स्त्री, हर बालक में
गांधी का स्वप्न फिर से सांस ले रहा है।

और जब भी हवा चलती है
किसी खेत के ऊपर से,
ऐसा लगता है —
गांधी वहीं हैं,
अपनी लाठी थामे,
मुस्कराते हुए कहते —
“यह मेरा भारत है,
यह मेरा गाँव है।”

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