क्या गांधीजी भगत सिंह को फाँसी से बचा सकते थे?

   


क्या गांधीजी भगत सिंह को फाँसी से बचा सकते थे?

भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के इतिहास में यह प्रश्न आज भी बहस का विषय है — क्या महात्मा गांधी भगत सिंह को फाँसी से बचा सकते थे?
दोनों ही भारत की आज़ादी के प्रतीक हैं, लेकिन उनके रास्ते, विचार और संघर्ष की दिशा बिल्कुल भिन्न थीं।
जहाँ गांधीजी ने अहिंसा और सत्याग्रह को अपना हथियार बनाया, वहीं भगत सिंह ने क्रांतिकारी प्रतिरोध और शस्त्रबल के मार्ग को चुना।

दोनों का लक्ष्य एक था — भारत की स्वतंत्रता, परंतु साधन अलग थे। इसी भिन्नता के कारण जब भगत सिंह को फाँसी की सज़ा सुनाई गई, तब पूरा देश गांधीजी की ओर उम्मीद से देखने लगा कि शायद वे ब्रिटिश सरकार को मनाकर इन तीन वीरों — भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव — की जान बचा सकें।


ऐतिहासिक पृष्ठभूमि

सन् 1928 में लाला लाजपत राय पर ब्रिटिश पुलिस द्वारा किए गए निर्मम लाठीचार्ज में उनकी मृत्यु हो गई। यह घटना भारतीय जनमानस के हृदय पर गहरा आघात थी।
भगत सिंह और उनके साथियों के लिए यह केवल एक देशभक्त की हत्या नहीं, बल्कि राष्ट्र की आत्मा पर प्रहार था। उन्होंने इस अत्याचार का बदला लेने की ठानी और अफसर जे. पी. सॉन्डर्स की हत्या कर दी।

सन् 1929 में, भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त ने केन्द्रीय विधान सभा में बम फेंका। उनका उद्देश्य हत्या नहीं था, बल्कि ब्रिटिश सरकार को जगाने का था — “बहरों को सुनाने के लिए धमाके की ज़रूरत होती है।”
दोनों ने स्वयं को पुलिस के हवाले कर दिया और अदालत को अपने विचारों के प्रचार का मंच बना लिया। लेकिन ब्रिटिश सरकार ने उन्हें और उनके साथियों को लाहौर षड्यंत्र केस में फाँसी की सज़ा सुनाई।


गांधीजी की स्थिति

सन् 1931 तक गांधीजी गांधी-इरविन समझौते के माध्यम से ब्रिटिश सरकार से बातचीत में व्यस्त थे। इस समझौते के तहत कई राजनीतिक बंदियों की रिहाई और कांग्रेस पर लगा प्रतिबंध हटाया जाना तय हुआ।
इसी दौरान भगत सिंह की सज़ा पर जनता का ग़ुस्सा चरम पर था। पूरे देश में भगत सिंह के लिए दया याचना की माँग उठ रही थी।

गांधीजी ने भी इस मुद्दे को लॉर्ड इरविन के सामने रखा और उनसे सज़ा को आजीवन कारावास में बदलने का आग्रह किया।
लेकिन ब्रिटिश सरकार ने सख्ती से इनकार कर दिया। उनका कहना था कि ऐसा करने से “कानून और शासन की प्रतिष्ठा” पर आघात होगा।


जनभावना और गांधीजी पर दबाव

देश के युवाओं में भगत सिंह एक प्रतीक बन चुके थे — साहस, त्याग और विद्रोह का प्रतीक।
उनकी जेल से लिखी गई चिट्ठियाँ, उनका मुस्कुराता चेहरा, और उनके विचार पूरे भारत को प्रेरित कर रहे थे।

युवाओं को लगता था कि गांधीजी अगर चाहें, तो ब्रिटिश सरकार को झुका सकते हैं।
लेकिन गांधीजी की राजनीति और दर्शन अहिंसा पर आधारित थी। वे हिंसा को किसी भी रूप में स्वीकार नहीं करते थे, चाहे वह क्रांतिकारी आंदोलन ही क्यों न हो।

कांग्रेस के कई सदस्य और आम जनता यह मानते थे कि गांधीजी को समझौते में भगत सिंह की रिहाई को एक शर्त के रूप में शामिल करना चाहिए था।
परंतु गांधीजी का कहना था कि ब्रिटिश सरकार इस विषय पर किसी भी स्थिति में झुकने को तैयार नहीं थी। अगर उन्होंने इस पर ज़ोर डाला होता, तो पूरा समझौता ही टूट सकता था।


क्या गांधीजी वास्तव में उन्हें बचा सकते थे?

यह प्रश्न दो दृष्टिकोणों से देखा जा सकता है — नैतिक और राजनीतिक

१. नैतिक दृष्टिकोण

गांधीजी सैद्धांतिक रूप से मृत्युदंड के विरोधी थे।
उनका मानना था कि किसी भी व्यक्ति की हत्या — चाहे राज्य करे या व्यक्ति — अहिंसा के सिद्धांत के विरुद्ध है।
उन्होंने कहा था —

“मैं किसी को फाँसी देने के पक्ष में नहीं हूँ, विशेषकर भगत सिंह जैसे साहसी युवक को।”

इस दृष्टि से गांधीजी ने नैतिक रूप से अपनी भूमिका निभाई — उन्होंने फाँसी का विरोध किया, दया याचना की, परंतु हिंसा का समर्थन नहीं किया।

२. राजनीतिक दृष्टिकोण

राजनीतिक दृष्टि से स्थिति अत्यंत जटिल थी। गांधीजी उस समय पूरे देश के प्रतिनिधि के रूप में ब्रिटिश सरकार से समझौता कर रहे थे।
उनका लक्ष्य था — लाखों कैदियों की रिहाई, जन अधिकारों की बहाली और आंदोलन को वैधता दिलाना।
यदि वे भगत सिंह के मामले पर अत्यधिक दबाव डालते, तो पूरा समझौता ही रुक सकता था, जिससे स्वतंत्रता आंदोलन को बड़ा नुकसान होता।

ब्रिटिश सरकार भगत सिंह जैसे क्रांतिकारियों को “खतरा” मानती थी।
उनका मानना था कि यदि उन्हें क्षमा दी गई, तो हिंसक आंदोलन और बढ़ेंगे। इसलिए वे किसी भी प्रकार की नरमी दिखाने को तैयार नहीं थे।


भगत सिंह का स्वयं का दृष्टिकोण

भगत सिंह स्वयं किसी दया याचना के पक्ष में नहीं थे।
उन्होंने जेल से लिखा —

“मुझे फाँसी से डर नहीं। यदि मेरा मरना देश को जगाने में सहायक हो, तो यह सौभाग्य की बात है।”

उन्होंने शहादत को अपना संदेश बना लिया था।
उनकी दृष्टि में मृत्यु एक बलिदान था, जो आने वाली पीढ़ियों को स्वतंत्रता के लिए प्रेरित करेगा।

इसलिए, भले ही गांधीजी किसी प्रकार से उनकी सज़ा माफ़ करवा भी लेते, सम्भव है भगत सिंह स्वयं उसे स्वीकार न करते।


अंतिम क्षण और गांधीजी की भूमिका

23 मार्च 1931 की रात को भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव को फाँसी दे दी गई।
देशभर में आक्रोश फैल गया।
गांधीजी की आलोचना हुई — युवाओं ने उन्हें “समझौते का कैदी” कहा।
परंतु गांधीजी ने कहा —

“मैंने अपनी पूरी शक्ति से प्रयास किया। परंतु अहिंसा के मार्ग पर चलकर मैं किसी की हत्या रोकने के लिए हिंसा का सहारा नहीं ले सकता।”

गांधीजी का कहना था कि वे केवल नैतिक प्रभाव डाल सकते थे, राजनीतिक दबाव नहीं।


गांधी और भगत सिंह — दो मार्ग, एक लक्ष्य

गांधीजी और भगत सिंह दोनों एक ही स्वप्न देखते थे — स्वतंत्र भारत का।
एक ने उसे अहिंसा से पाने की कोशिश की, दूसरे ने क्रांति से।
दोनों ने अपना जीवन राष्ट्र को समर्पित किया।

गांधीजी ने कहा था —

“भगत सिंह और उनके साथी निस्संदेह साहसी हैं, पर उनका साहस गलत दिशा में है। फिर भी मैं उनके देशभक्ति के प्रति गहरा सम्मान रखता हूँ।”

यह कथन बताता है कि गांधी और भगत सिंह के बीच विचारों का मतभेद था, पर देशप्रेम की भावना एक थी।


निष्कर्ष

तो क्या गांधीजी भगत सिंह को फाँसी से बचा सकते थे?
शायद नहीं, क्योंकि उस समय की परिस्थितियाँ, ब्रिटिश सरकार का रवैया और दोनों नेताओं की विचारधाराएँ — सभी उसके विरुद्ध थीं।
गांधीजी ने यथासंभव प्रयास किया, लेकिन उनका मार्ग और सीमाएँ अलग थीं।

फिर भी, गांधीजी का सत्य और भगत सिंह की शहादत — दोनों ने मिलकर भारत को जगाया।
एक ने आत्मा को मुक्त किया, दूसरे ने रक्त से मिट्टी को पवित्र किया।
भारत को स्वतंत्रता दिलाने के लिए दोनों की आवश्यकता थी — गांधी का “सत्य” और भगत सिंह का “बलिदान।”



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