क्या गांधीजी की तुलना सावरकर से करना उचित है?



क्या गांधीजी की तुलना सावरकर से करना उचित है?

भारत के इतिहास में दो ऐसे नाम हैं जिनके इर्द-गिर्द आज भी विचारों की बहसें चलती हैं — महात्मा गांधी और विनायक दामोदर सावरकर
दोनों ने अपने-अपने तरीके से भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन और राष्ट्र की चेतना को प्रभावित किया।
परंतु आज की राजनीति और समाज में इन्हें अकसर एक-दूसरे के समानांतर खड़ा किया जाता है — जैसे दोनों एक ही विचारधारा या पथ के प्रतिनिधि रहे हों।

मगर प्रश्न यह है — क्या वास्तव में गांधीजी की तुलना सावरकर से करना न्यायसंगत है?
इसका उत्तर हमें इतिहास के तथ्यों और उनके जीवन-दर्शन को समझकर ही मिल सकता है।


दो व्यक्ति, दो मार्ग, दो दर्शन

यद्यपि गांधी और सावरकर एक ही युग में जन्मे थे, पर उनके विचारों की जड़ें बिल्कुल भिन्न थीं।

महात्मा गांधी का दर्शन अहिंसा और सत्य पर आधारित था।
वे मानते थे कि साधन उतने ही पवित्र होने चाहिए जितना लक्ष्य।
उनका सत्याग्रह केवल अंग्रेज़ी शासन के खिलाफ आंदोलन नहीं था, बल्कि मनुष्य की आत्मा को शुद्ध करने का प्रयास था।
उनके भारत का स्वप्न ऐसा था जो करुणा, समानता और सौहार्द पर खड़ा हो — जहाँ धर्म, जाति या वर्ग किसी की पहचान न बनें।

विनायक दामोदर सावरकर का दृष्टिकोण इससे बिल्कुल अलग था।
वे क्रांतिकारी थे — राष्ट्र की स्वतंत्रता और शक्ति के प्रतीक।
उनके लिए भारत का निर्माण सांस्कृतिक एकता और हिंदू पहचान पर आधारित होना चाहिए था।
उन्होंने हिंदुत्व को केवल धर्म नहीं, बल्कि एक सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के रूप में प्रस्तुत किया।

गांधी ने आत्मा की स्वतंत्रता का सपना देखा,
सावरकर ने राष्ट्र की शक्ति का।
एक ने प्रेम से विरोध किया, दूसरे ने प्रतिरोध से सम्मान अर्जित किया।


साधनों का अंतर

गांधीजी के लिए राजनीति नैतिकता से अलग नहीं थी।
उनका विश्वास था कि हिंसा से प्राप्त कोई भी जीत स्थायी नहीं हो सकती।
उनकी लड़ाई हथियारों से नहीं, बल्कि आत्मबल से लड़ी गई।
उन्होंने लाखों भारतीयों को यह विश्वास दिलाया कि सत्य और प्रेम भी साम्राज्य को झुका सकते हैं।

सावरकर का मार्ग व्यवहारिक और कठोर था।
वे आदर्शवाद से अधिक यथार्थवाद के समर्थक थे।
उनका मानना था कि जब शत्रु हिंसा करे, तब उसका उत्तर केवल नैतिक उपदेशों से नहीं दिया जा सकता।
उनके लिए राष्ट्र की रक्षा सर्वोच्च कर्तव्य थी, और इसके लिए बल का प्रयोग भी उचित माना गया।

इसलिए गांधी की अहिंसा और सावरकर की शक्ति की तुलना करना ऐसे है जैसे जल और अग्नि की तुलना करना — दोनों में शक्ति है, पर उद्देश्य अलग है।


भारत का उनका दृष्टिकोण

गांधीजी का भारत आत्मनिर्भर गाँवों, सहिष्णु समाज और नैतिक शासन का भारत था।
वे ऐसा राष्ट्र चाहते थे जो सभी धर्मों और समुदायों के लिए समान रूप से अपना हो।
उनका कहना था — “मेरे लिए हिंदू या मुसलमान का अर्थ अलग नहीं है, वे दोनों भारत की आत्मा हैं।”

सावरकर का भारत सांस्कृतिक दृष्टि से एकरूप राष्ट्र था — जहाँ भारत को हिंदू सभ्यता का केंद्र माना गया।
उनके अनुसार, जो इस भूमि को अपनी पवित्र भूमि और पितृभूमि मानता है, वही सच्चा भारतीय है।

गांधी का भारत समावेशी था,
सावरकर का भारत दृढ़ और विशिष्ट
दोनों ने भारत से प्रेम किया, पर उस प्रेम की परिभाषा अलग थी।


देशभक्ति का स्वरूप

गांधी की देशभक्ति नैतिकता और आत्मशुद्धि पर आधारित थी।
वे मानते थे कि जब तक हम अपने भीतर की बुराइयों — जैसे घृणा, लोभ और भेदभाव — से नहीं लड़ते, तब तक स्वतंत्रता अधूरी है।

सावरकर की देशभक्ति गौरव और आत्मसम्मान से प्रेरित थी।
उनके लिए देश के प्रति प्रेम का अर्थ था — साहस, अनुशासन और त्याग।

इसलिए यह कहना कि एक देशभक्त था और दूसरा नहीं — अनुचित होगा।
परंतु दोनों की देशभक्ति को एक ही तराजू पर तौलना भी अनुचित है।
गांधी की वीरता आत्मा की थी, सावरकर की वीरता बाहुबल की।


राजनीति द्वारा तुलना का दुरुपयोग

आज गांधी और सावरकर की तुलना अक्सर राजनीतिक लाभ के लिए की जाती है।
कुछ दल गांधी को “कमज़ोर नैतिकतावादी” कहकर सावरकर को “सशक्त राष्ट्रवादी” के रूप में प्रस्तुत करते हैं,
तो कुछ गांधी को “महात्मा” कहकर सावरकर को “कट्टर” ठहराते हैं।

सच्चाई यह है कि दोनों ही अपने समय की परिस्थितियों और मानसिकता के उत्पाद थे।
उनकी असहमति हमें यह सिखाती है कि विचारों का विविध होना लोकतंत्र की शक्ति है।
पर जब हम इतिहास को दलों की सुविधा के अनुसार तोड़ते हैं, तो सच्चाई विकृत हो जाती है।


नैतिकता बनाम राष्ट्रवाद — एक झूठा द्वंद्व

यह कहना कि गांधी नैतिकता के प्रतीक थे और सावरकर राष्ट्रवाद के — यह विभाजन अधूरा है।
गांधी का राष्ट्रवाद भी नैतिक था — वे भारत से प्रेम करते थे क्योंकि भारत में विविधता थी।
सावरकर की नैतिकता उनके राष्ट्रवाद में निहित थी — वे मानते थे कि राष्ट्र की रक्षा ही सर्वोच्च धर्म है।

दोनों में शक्ति थी —
एक की शक्ति क्षमा में थी, दूसरे की संघर्ष में।
भारत की आत्मा इन दोनों शक्तियों के संतुलन से ही बनी है।


दोनों से मिलने वाली सीख

तुलना करने से बेहतर है — उनसे सीखना।
गांधी हमें सिखाते हैं कि करुणा और आत्मसंयम से भी क्रांति लाई जा सकती है।
सावरकर हमें सिखाते हैं कि साहस, अनुशासन और आत्मगौरव किसी भी राष्ट्र के अस्तित्व की नींव हैं।

भारत को दोनों की आवश्यकता है —
गांधी की करुणा और सावरकर की दृढ़ता,
गांधी की आत्मा और सावरकर का संकल्प।


निष्कर्ष: तुलना नहीं, समझ जरूरी है

गांधी और सावरकर की तुलना करना उचित नहीं, क्योंकि दोनों की दृष्टि, परिस्थिति और लक्ष्य अलग थे।
गांधी भारत की आत्मा के प्रतीक थे —
सावरकर उसकी चेतना के।

एक ने नैतिकता से लोगों को जोड़ा,
दूसरे ने गौरव से।

भारत का इतिहास इन दोनों के बिना अधूरा है।
इनमें से किसी एक को ऊपर उठाने के लिए दूसरे को गिराना — भारत की आत्मा को विभाजित करना है।

एक सभ्य राष्ट्र वही होता है जो अपने नायकों के भेदों को समझे, उन्हें संतुलित करे, और उनसे आगे बढ़े।
भारत को आज यही सीखने की ज़रूरत है —
कि आत्मा और शक्ति दोनों का संगम ही सच्चा राष्ट्रवाद है,
और जब यह संगम टूटता है, तब राष्ट्र केवल शक्तिशाली नहीं — बल्कि संवेदनहीन बन जाता है।



Comments