“प्रकृति की पूजा — सृष्टि के अनंत ज्ञान की साधना”
“प्रकृति की पूजा — सृष्टि के अनंत ज्ञान की साधना”
भूमिका
आधुनिक युग में जब मनुष्य विज्ञान, प्रौद्योगिकी और भौतिक प्रगति में खो गया है, तब वह अपने सबसे प्राचीन गुरु — प्रकृति — को लगभग भूल चुका है।
वह प्रकृति, जो सृष्टि का मूल है; जो हर श्वास में विद्यमान है; जो बिना बोले जीवन का पाठ पढ़ाती है।
मनुष्य ने जब पहली बार आकाश में सूर्य देखा, या नदियों की कल-कल सुनी, तब उसे अहसास हुआ कि इस संसार में एक ऐसी शक्ति है जो हर दिशा में व्याप्त है — सर्वशक्तिमान प्रकृति।
यही से आरंभ हुई प्रकृति की उपासना, जो न किसी धर्म का हिस्सा है, न किसी पूजा-पद्धति का परिणाम; यह तो केवल चेतना की पहचान है।
न उत्पत्ति का ज्ञान, न अंत का भान
कवि कहता है — “न उत्पत्ति का ज्ञान, न अंत का भान” — यही तो सत्य है।
हम न जानते हैं कि सृष्टि कब आरंभ हुई, न यह कि इसका अंत कब होगा।
हर खोज के साथ रहस्य और गहरा होता जाता है, हर उत्तर के पीछे नया प्रश्न जन्म लेता है।
ज्ञान का सागर अनंत है — जितना तैरो, उतनी उसकी गहराई बढ़ती जाती है।
मनुष्य जितना जानने का प्रयास करता है, उतना ही उसे यह अहसास होता है कि वह कितना अज्ञानी है।
यहीं से प्रारंभ होती है विनम्रता की साधना — यह स्वीकार करना कि शायद सब कुछ जानना संभव नहीं,
पर सब कुछ अनुभव करना — यही सच्चा ज्ञान है।
अनुभव से सीखना — ज्ञान का शुद्धतम रूप
किताबें मार्गदर्शक हैं, पर जीवन ही सबसे बड़ा शिक्षक है।
प्रकृति के प्रत्येक तत्व — मिट्टी, जल, अग्नि, वायु, आकाश — हमें कुछ न कुछ सिखाते हैं।
“देखकर और अनुभव के दम पर सीखना” — यह वाक्य गहरा दर्शन समेटे हुए है।
वर्षा की बूँद जब धरती को चूमती है, तब सृजन का रहस्य झलकता है।
हवा की सरसराहट में शांति का संगीत है, और अग्नि की लपटों में परिवर्तन की पुकार।
यह अनुभव ही सच्चा ज्ञान है — जो मनुष्य को नम्र बनाता है, और उसे सृष्टि से जोड़ता है।
प्रकृति — सर्वशक्तिमान का रूप
कवि के शब्द “सर्वशक्तिमान प्रकृति की पूजा” एक गहरी आध्यात्मिक अनुभूति हैं।
प्रकृति ही सृजनकर्ता है, पालनहार है और संहारक भी।
सूर्य जीवन देता है, परंतु वही अग्नि जलाती भी है।
नदी पोषक है, परंतु वही विनाशक भी बन सकती है।
यह द्वंद्व नहीं, बल्कि संतुलन है — वही संतुलन जो जीवन को स्थिर रखता है।
भारतीय दर्शन में यही शक्ति तत्त्व है — स्त्री ऊर्जा, जो ब्रह्मांड का पोषण करती है।
इसलिए प्रकृति की पूजा दीपक या धूप से नहीं, बल्कि संवेदना, संयम और संरक्षण से होती है।
प्रकृति के पाँच तत्वों का संदेश
हर तत्व अपनी एक सीख देता है —
- पृथ्वी सिखाती है — स्थिर रहो, सहनशील बनो।
- जल सिखाता है — बहते रहो, बदलते रहो, पर अपने मूल को न भूलो।
- अग्नि कहती है — शुद्ध रहो, और अपने भीतर की ज्वाला को जीवित रखो।
- वायु सिखाती है — स्वतंत्र रहो, लेकिन जीवन को गति दो।
- आकाश बताता है — विस्तार ही अस्तित्व है; सीमाओं से परे उड़ो।
इन पाँचों का संगम ही जीवन है, और इन्हीं की संतुलित उपासना ही सच्ची पूजा है।
आधुनिक युग में भुला दी गई प्रकृति
आज की दुनिया में मनुष्य ने विकास की दौड़ में प्रकृति से दूरी बना ली है।
वह भूल गया है कि उसका अस्तित्व उसी मिट्टी, जल और वायु पर निर्भर है जिसे वह नष्ट कर रहा है।
विकास की अंधी दौड़ ने जंगलों को काटा, नदियों को प्रदूषित किया, और हवा को ज़हर बना दिया।
मंदिरों में ईश्वर की आराधना करने वाला मनुष्य,
पेड़ों, पशुओं और पृथ्वी के प्रति संवेदनहीन हो गया है।
परंतु जो प्रकृति का अपमान करता है, वह अंततः स्वयं के विनाश की राह बनाता है।
प्रकृति-पूजा का नया अर्थ — आध्यात्मिक पर्यावरणवाद
प्रकृति की पूजा आज केवल धार्मिक कर्मकांड नहीं, बल्कि जीवन-दर्शन बननी चाहिए।
इसे आधुनिक शब्दों में “Spiritual Ecology” कहा जा सकता है —
एक ऐसी दृष्टि, जो पर्यावरण संरक्षण को आध्यात्मिक कर्तव्य के रूप में देखती है।
जब हम प्रकृति को देवता मानते हैं,
तो उसकी रक्षा करना कोई जिम्मेदारी नहीं, बल्कि एक प्रार्थना बन जाती है।
यह विचार हमें शोषण से सह-अस्तित्व की ओर ले जाता है।
प्रकृति की पूजा का अर्थ है —
उसका सम्मान करना,
उसके साथ संतुलित रहना,
और उसके प्रत्येक अंश में ईश्वर का दर्शन करना।
जीवन और मृत्यु का शाश्वत चक्र
प्रकृति की गोद में कोई अंत नहीं होता, केवल परिवर्तन होता है।
मृत्यु केवल एक रूपांतरण है, जहाँ मिट्टी मिट्टी में मिलती है,
और जीवन पुनः किसी अन्य रूप में जन्म लेता है।
यह अनंत चक्र हमें सिखाता है कि
हम प्रकृति से अलग नहीं, बल्कि उसी के विस्तार हैं।
जो मिट्टी हमें जन्म देती है,
वही मिट्टी हमें अंत में अपने आँचल में समा लेती है।
इस सच्चाई को समझ लेना ही मुक्ति है।
समापन — सच्ची पूजा का अर्थ
प्रकृति की पूजा का अर्थ है —
हर उस श्वास में ईश्वर को महसूस करना,
जो पेड़ों से आती है,
हर उस बूँद में नम्र होना,
जो वर्षा के रूप में हमें जीवन देती है।
ईश्वर केवल मंदिरों में नहीं,
बल्कि उस मिट्टी में है जिसे हम रौंदते हैं,
उस जल में है जिसे हम व्यर्थ बहाते हैं,
और उस हवा में है जिसे हम ज़हर बनाते जा रहे हैं।
जब हम इन तत्वों का सम्मान करना सीख जाते हैं,
तभी हम सच्चे अर्थों में प्रकृति-पूजक बनते हैं।
क्योंकि प्रकृति ही ब्रह्म है, और ब्रह्म ही हम सबमें व्याप्त है।
🌺 लेखक: रूपेश रंजन
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