प्रस्तावना: भारत में आरक्षण नीति — उद्देश्य, चुनौतियाँ और विकास
प्रस्तावना: भारत में आरक्षण नीति — उद्देश्य, चुनौतियाँ और विकास
भारत में आरक्षण नीति का उद्देश्य यही रहा है कि उन सामाजिक-आर्थिक रूप से पिछड़े समूहों — जैसे कि अनुसूचित जाति (SC), अनुसूचित जनजाति (ST) तथा अन्य पिछड़ा वर्ग (OBC) — को शिक्षा और सार्वजनिक रोजगार के अवसर मिल सकें, जो लंबे समय से वंचित रहे हैं। यह सामाजिक न्याय की दिशा में एक महत्वपूर्ण उपक्रम है।
आरक्षण नीति दो रूपों में काम करती है: वर्टिकल आरक्षण (उदाहरण के लिए SC/ST/OBC/EWS) और हॉरिज़ॉन्टल आरक्षण (उदाहरण के लिए महिलाओं, विकलांगों के लिए आदि)। इसके साथ ही भारत के संविधान के अनुच्छेद 14, 15, 16 के तहत “समानता” के अधिकार एवं राज्य की “विशेष प्रावधान करने” की शक्ति का संतुलन हमेशा प्रश्न में रहा है।
समय-साथ इस नीति में कई प्रश्न उठे हैं:
- आरक्षण की सीमा — विशेष रूप से 50% का छत-सिद्धांत
- सार्वजनिक रोजगार में आरक्षण का दायरा: क्या प्रमोशन भी शामिल है?
- आर्थिक रूप से कमजोर वर्ग (EWS) को आरक्षण देना संवैधानिक है या नहीं?
- एक आरक्षित श्रेणी (उदाहरण: SC) के अंतर्गत फिर से उप-वर्गीकरण (sub-classification) संभव है या नहीं?
- आरक्षित वर्ग के उम्मीदवार यदि सामान्य श्रेणी की ओर चयनित होते हैं तो उन्हें कैसे देखें?
- राज्यों द्वारा आरक्षण नियमों का निर्माण, खाली पदों का कैरी-फॉरवर्ड आदि — इन सवालों ने न्यायपालिका में काफी बहस उत्पन्न की है।
इन पृष्ठभूमियों में हाल के निर्णय इस क्षेत्र में महत्वपूर्ण मोड़ लेकर आए हैं।
प्रमुख हालिया निर्णय एवं उनका विश्लेषण
नीचे कुछ अत्यंत महत्वपूर्ण हालिया मामलों का विवरण एवं उनके प्रभाव दिए जा रहे हैं:
1. उप-वर्गीकरण (Sub-classification) का मामला: State of Punjab v. Davinder Singh
इस मामले में Supreme Court of India (सात-न्यायाधीश बेंच) ने निर्णय दिया कि राज्य सरकारों को अनुसूचित जातियों/जनजातियों (SC/ST) के भीतर उप-वर्गीकरण करने का अधिकार है।
निर्णय के मुख्य बिंदु
- पुरानी परंपरागत धारणा जिसे E. V. Chinnaiah v. State of Andhra Pradesh में अपनाया गया था कि SC/ST-वर्ग समरूप (homogeneous) हैं और उप-वर्गीकरण नहीं हो सकता — उसे बदल दिया गया।
- न्यायालय ने कहा कि सामाजिक-आर्थिक वास्तविकताएँ बताती हैं कि SC/ST श्रेणियों के भीतर भी बहुत भिन्नता है; इसलिए यदि कुछ उप-समूह अत्यधिक पिछड़े हों, तो उनके लिए विशेष आरक्षण प्रावधान संभव है।
- आगामी कार्यवाही के लिए राज्य-प्रशासन को निर्देश दिए गए कि उप-वर्गीकरण करते समय “डेटा-समर्थित” साक्ष्यों का प्रयोग हो।
प्रभाव एवं चुनौतियाँ
- अब राज्य सरकारों को अधिक सटीक तरीके से यह तय करने का अवसर मिला है कि SC/ST में कौन से उप-समूह और किस अनुपात में आरक्षण से लाभान्वित होंगे।
- इससे सामाजिक न्याय की दिशा में “अंदर की असमानता” (within-category inequality) पर ध्यान देना संभव हुआ है।
- लेकिन प्रशासकीय दृष्टि से यह चुनौती दे रहा है: उप-समूहों की पहचान कैसे होगी, डेटा कैसे जमा होगा, अन्य समूहों को अवसर से वंचित न किया जाए, विवाद-विवादन न बढ़ें।
2. आरक्षित श्रेणी से सामान्य श्रेणी में स्थानांतरण: Union of India v. Sajib Roy (2025)
इस मामले में सवाल था — क्या यदि आरक्षित श्रेणी (उदाहरण: OBC/SC/ST) का उम्मीदवार सामान्य श्रेणी की कट-ऑफ से ऊपर अंक प्राप्त करता है, तो उसे सामान्य श्रेणी के अंतर्गत सीट मिल सकती है?
निर्णय-सारांश
- यदि भर्ती-नियम या विज्ञापन में ऐसा प्रतिबंध न हो कि आरक्षित श्रेणी का उम्मीदवार सामान्य श्रेणी में वर्णित नहीं हो सकता, तो वह सामान्य श्रेणी में चयनित हो सकता है।
- लेकिन यदि नियमों में स्पष्ट लिखा हो कि “आरक्षित श्रेणी के उम्मीदवार सामान्य श्रेणी की सीट नहीं ले सकते”, तो नियम मान्य होते हैं।
महत्व
- यह निर्णय आरक्षण और योग्यता (merit) के बीच बेहतर संतुलन की दिशा में है — यह कहता है कि आरक्षण-वर्ग का बेहतर उम्मीदवार सामान्य-वर्ग की सीट से वंचित नहीं रहना चाहिए।
- भर्ती-प्रक्रिया एवं नियम-निर्माण (recruitment rules) में स्पष्टता की आवश्यकता अब और बढ़ गई है।
3. EWS आरक्षण (आर्थिक रूप से कमजोर वर्ग): Janhit Abhiyan v. Union of India
इस निर्णय में 2019 के संविधान 103वें संशोधन को वैध माना गया, जिसके तहत आर्थिक रूप से कमजोर वर्गों (EWS) को शिक्षा व रोजगार में 10% आरक्षण दिया गया था।
मुख्य बातें
- न्यायालय ने माना कि संविधान के अनुच्छेद 15 एवं 16 में किये गए संशोधन, जो EWS के लिए आरक्षण की अनुमति देते हैं, संवैधानिक रूप से वैध हैं।
- यह आरक्षण पूर्ववर्ती आरक्षित वर्गों (SC/ST/OBC) से स्वतंत्र रूप से है, यानी “अतिरिक्त” रूप से लागू हुआ।
- लेकिन इस पर लागू होंगे-उदाहरण: लागू-करण, डेटा उपलब्धता, “क्रीमी लेयर” (यदि लागू हो) आदि।
प्रासंगिकता
- यह निर्णय आरक्षण नीति की परिधि को विस्तारित करता है — अब केवल जाति-आधारित पिछड़ापन ही नहीं बल्कि आर्थिक पिछड़ापन भी प्रमुख आधार बन सकता है।
- भविष्य में यह प्रेरणा देगा कि आरक्षण को अधिक समग्र रूप में पुनर्विचारित किया जाए — जाति + आर्थिक स्थिति के संयोजन से।
4. हॉरिज़ॉन्टल आरक्षण एवं आरक्षित-वर्ग में “मेरिट”-उत्कृष्ट उम्मीदवार: जैसे Ramnaresh v. State of M.P. और Deependra Yadav v. State of M.P.
इन मामलों में मुद्दा था कि यदि आरक्षित श्रेणी का उम्मीदवार सामान्य-काटऑफ से ऊपर अंक प्राप्त करता है, तब उसे सामान्य श्रेणी-सेट में कैसे देखें।
तथ्य एवं निष्कर्ष
- Ramnaresh मामले में न्यायालय ने कहा कि आरक्षित वर्ग का उच्च अंक प्राप्त करने वाला उम्मीदवार उसे आरक्षित सीट तक सीमित नहीं रखा जाना चाहिए।
- Deependra Yadav मामले में कहा गया कि यदि भर्ती परीक्षा अलग-अलग हुई है, तो परिणाम सूची को समानूल रूप से मर्ज/समानोचित किया जाना चाहिए और आरक्षित उम्मीदवार को सामान्य श्रेणी में शामिल किया जाना चाहिए।
प्रभाव
- यह स्पष्ट संकेत देता है कि आरक्षण नीति “मेंढक दृष्टिकोण” नहीं अपनाएगी— अर्थात् आरक्षित उम्मीदवार को स्वतंत्र रूप से आगे बढ़ने से नहीं रोका जाएगा।
- इसने यह मान्यता दी है कि आरक्षण ‘एक मौका’ है, ‘अनंत सीमा’ नहीं — उम्मीदवार की योग्यता भी मायने रखेगी।
5. 50 % की छत (Ceiling) और उसकी पुनर्समीक्षा
परंपरागत रूप से Indra Sawhney & Others v. Union of India (1992) में कहा गया था कि आरक्षण आम तौर पर 50% से अधिक नहीं होना चाहिए।
वर्तमान प्रवृत्तियाँ
- हालिया निर्णय-विश्लेषण बताते हैं कि यह 50% छत अब ‘बहुत कठोर नियम’ नहीं रह गया है — यदि राज्य-पृष्टभूमि में बेहद पीछे पड़े समूह हों तो इससे अधिक आरक्षण भी संभव कहा गया है।
- उदाहरण के लिए विशेष संस्थानों में SC हेतु उच्च प्रतिशत आरक्षण की अनुमति-संभावना पर न्यायालय विचार कर रहा है।
चिंताएँ एवं सावधानियाँ
- यदि आरक्षण प्रतिशत बहुत बढ़ जाए, तब अन्य सामान्य श्रेणी के अवसरों पर प्रश्न उठ सकते हैं।
- यह आवश्यक है कि आरक्षण-व्यवस्था का उद्देश्य सामाजिक न्याय हो, न कि मात्र आरक्षण प्रतिशत बढ़ाना।
- प्रशासन को “कहाँ तक” की सीमा तय करना होगी, डेटा-समर्थन होना चाहिए और न्यायसंगत विभाजन सुनिश्चित करना होगा।
विवेचनात्मक-मूलक विषय और उभरती प्रवृत्तियाँ
न्यायिक प्रवृत्तियों से कुछ ऐसे विषय उभरे हैं जिन्हें ध्यान में रखना जरूरी है:
(A) डेटा-आधारित फैसला और लक्ष्य-निर्धारण
आज यह स्पष्ट है कि आरक्षण नीति के लिए सिर्फ विधानप्रावधान पर्याप्त नहीं हैं — राज्य को यह दिखाना होगा कि आरक्षित समूहों में असमानता व पिछड़ापन वास्तविक है और उनके लिए विशेष प्रावधान की आवश्यकता है।
उप-वर्गीकरण जैसे निर्णय में न्यायालय ने इस बात पर विशेष बल दिया है।
(B) मेरिट-आरक्षण का समन्वय
हाल के निर्णय इस बात की दिशा में हैं कि आरक्षण और मेरिट विरोधी नहीं हैं — उन्हें संतुलित किया जा सकता है। यह आरक्षित उम्मीदवारों को आगे बढ़ने का मार्ग खोलता है।
(C) वर्टिकल-हॉरिज़ॉन्टल आरक्षण का जाल
आगे चलकर विभिन्न आधारों पर आरक्षण बढ़ा है — जाति, आर्थिक स्थिति, विकलांगता, लिंग आदि। इससे यह प्रश्न उत्पन्न हुआ है कि इन सभी का संयोजन कैसे करें। आरक्षण की सूची, कैरी-फॉरवर्ड नियम, खाली पदों का व्यवहार — इन सबका प्रबंधन जटिल हो गया है।
(D) उप-वर्गीकरण एवं आंतरिक न्याय
उप-वर्गीकरण की पद्धति यह सुनिश्चित करती है कि एक आरक्षित श्रेणी के भीतर सबसे पिछड़े उप-समूह को लाभ मिले। लेकिन यदि यह पद्धति असंगत तरीके से लागू हो जाए, तो अंदरूनी असमानता बढ़ सकती है।
(E) क्रियान्वयन-चुनौतियाँ
कानून-निर्णय का अर्थ तभी स्पष्ट होता है जब वे जमीन पर सही से लागू हों — योग्य सूचना, भर्ती-प्रक्रिया, आरक्षण-सूची, निगरानी, डेटा उपलब्धता और समय पर समीक्षा। यदि ये अभाव रहें, तो आरक्षण की सार्थकता प्रभावित होती है।
चुनौतियाँ एवं आलोचनाएँ
आरक्षण नीति पर कोई भी विश्लेषण तभी पूरा होगा जब उसके सामने मौजूद चुनौतियों को भी देखा जाए:
- छत-सीमा का प्रश्न: यदि विभिन्न कारणों से आरक्षण प्रतिशत बहुत बढ़ जाए, तो सामान्य श्रेणी के अवसरों में कमी आ सकती है — यह सामाजिक संतुलन के लिए समस्या बन सकती है।
- मेरिट-प्रश्न: कुछ लोग मानते हैं कि आरक्षण से मानदंड गिर सकते हैं या संस्थाओं की गुणवत्ता प्रभावित हो सकती है। हालांकि, इस पर जवाब यह है कि ‘मेरिट’ सामाजिक-आर्थिक संदर्भ से प्रभावित होती है।
- डेटा-दुर्लभता: कई राज्यों में उप-जाती-स्तर पर, आर्थिक-स्थिति-स्तर पर विश्वसनीय डेटा नहीं है — इससे निर्णयों की वैधता पर प्रश्न उठ सकते हैं।
- संसाधन-अभाव: आरक्षण तभी अर्थपूर्ण होगा जब साथ में उचित शिक्षा-प्रशिक्षण, सहायता-तंत्र हों। यदि केवल सीट आरक्षित कर दी जाए पर तैयारी न मिले, तो लाभ स्थायी नहीं होगा।
- राजनीतिक आयाम: आरक्षण नीति भारी राजनीतिकरण से जुड़ी है — वोट बैंक, क्षेत्रीय समीकरण, सामाजिक दबाव आदि। इससे नीति-निर्माण कठिन होता है।
- परिवर्तनशील सामाजिक वास्तविकता: समाज गतिशील है — पिछड़ापन, आर्थिक स्थिति, सामाजिक अवसर निरंतर बदलते हैं। नीति को समय-साथ इसमें समायोजन करना होगा।
आगे की दिशा: क्या अपेक्षित है?
भविष्य की दिशा में कुछ संभावित प्रवृत्तियाँ स्पष्ट दिखाई दे रही हैं:
-
अधिक उप-वर्गीकरण व लक्षित आरक्षण
राज्यों द्वारा SC/ST/OBC के भीतर और अधिक बारीकी से विभाजन किए जा सकते हैं ताकि सबसे पिछड़े-पिछड़ें समूह को लाभ मिल सके। डेटा एवं शोध इस दिशा में महत्वपूर्ण होंगे। -
आर्थिक मानदंडों का समावेश
जैसे कि EWS (आर्थिक रूप से कमजोर वर्ग) आरक्षण ने संकेत दिया है, आगे जाति + आर्थिक पिछड़ापन का संयोजन बढ़ सकता है — उदाहरण-“आरक्षित जाति एवं अत्यंत आर्थिक रूप से पिछड़ा उप-समूह”। -
छत की पुनर्समीक्षा
50% का नियम अब कहीं-न-कहीं चुनौती को झेल रहा है। भविष्य में न्यायालय तथा राज्य सरकारें इस छत की सीमा-रूप को पुनर्विचार कर सकती हैं। -
नियम-निर्माण व पारदर्शिता
कहीं भी आरक्षण लागू हो, भर्ती-विज्ञापन, सीटो का वितरण, खाली पदों का आंकलन, उम्मीदवारों के डेटा का प्रकाशन — यह सब और अधिक शفاف होगा। -
सहायता-प्रस्तुति (Affirmative Support)
केवल सीट आरक्षित करना पर्याप्त नहीं है — शिक्षा, तैयारी, मेंटरिंग, नेटवर्किंग जैसे समर्थन-तंत्रों की भूमिका बढ़ेगी ताकि आरक्षित उम्मीदवार पूर्ण रूप से अपने अवसर का लाभ उठा सकें। -
विधि-निगरानी व अधिक मुकदमाबाजी
जैसे-जैसे नई शैलियाँ (उप-वर्गीकरण, ईडब्ल्यूएस, ज्यादा प्रतिशत आरक्षण) सामने आएंगी, वैसे-वैसे न्यायालयों में भी विवाद बढ़ेंगे। राज्यों को पुख्ता डेटा व तर्क के साथ नीति बनानी होगी।
समापन
भारत में आरक्षण नीति आज भी संवैधानिक, सामाजिक व न्यायिक दृष्टि से सबसे गतिशील, जटिल एवं विवादित क्षेत्रों में से एक है। ऊपर वर्णित निर्णय यह संकेत देते हैं कि अब आरक्षण केवल एक कट-ऑफ या प्रतिशत का खेल नहीं है— बल्कि अधिक सामाजिक-वास्तविक, योग्यता-संगत व नीति-समर्थित होना चाहिये।
नीति-निर्माताओं, अदालतों, संस्थाओं व सामाजिक गतिशीलताओं की जिम्मेदारी है कि उन्हें इस प्रकार डिजाइन करें कि आरक्षण का मूल उद्देश्य — संरचनात्मक वंचना को दूर करना, समावेशी भागीदारी बढ़ाना — साकार हो सके, साथ ही समानता (Equality) और योग्यता (Merit) के संवैधानिक सिद्धांतों का भी सम्मान हो।
आने वाले समय में यह देखना महत्वपूर्ण होगा कि किस प्रकार राज्यों द्वारा उप-वर्गीकरण लागू होता है, कितनी पारदर्शिता के साथ आरक्षण-तंत्र चलता है, और किस तरह सामाजिक-आर्थिक बदलावों के अनुरूप यह नीति स्वयं को ढालती है। न्यायपालिका का भी यह काम रहेगा कि वह इस प्रक्रिया की निगरानी करे एवं सुनिश्चित करे कि “आरक्षण” दिवसप्रतिदिन विकास-प्रद बनता जाए, संघर्ष-वर्धक नहीं।
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