गांधी के बाद का भारत : एक आत्मा का संवाद

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गांधी के बाद का भारत : एक आत्मा का संवाद

स्वतंत्रता की भोर हुई,
पर क्या सचमुच उजाला फैला?
ज़ंजीरें टूटीं ज़रूर,
पर आत्मा की बेड़ियाँ क्या ढीली पड़ीं?

गांधी चले गए —
पर उनके चश्मे से अब कौन देखता है सत्य?
चरखा घूमना थमा नहीं,
पर सूत अब मन का नहीं, बाज़ार का काता जाता है।


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सत्य की प्रतिध्वनि

कभी सत्याग्रह था आत्मा का उद्घोष,
अब सत्य प्रचार का औज़ार बन गया है।
कभी झूठ पर शर्म आती थी,
अब झूठ पर तर्क दिए जाते हैं।
वह सत्य, जो गांधी के व्रत का प्राण था,
आज सत्ता की सीढ़ियों में कहीं खो गया है।


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अहिंसा की मौन मृत्यु

गांधी ने कहा था — “अहिंसा कायरता नहीं, वीरता है।”
पर आज हर दिशा में शब्दों की हिंसा है,
विचारों की तलवारें, भावनाओं के रक्त से भीगी हैं।
भीतर का शत्रु अब बाहर नहीं दिखता —
वह हमारे मन के भीतर बैठ गया है,
जहाँ अहंकार, स्वार्थ और भय ने
अहिंसा को निर्वासित कर दिया है।


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ग्राम का मौन विलाप

जहाँ कभी हल की लय में जीवन गाता था,
वहाँ अब मशीनों की गर्जना गूंजती है।
गाँव, जिसे गांधी ने भारत की आत्मा कहा,
वह आज विकास की परिभाषा से बाहर कर दिया गया है।
शहरों की रोशनी में गाँवों की छाया खो गई —
और उस छाया में लाखों सपनों का अंधकार बस गया।


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धर्म का विभाजन, मानवता का निर्वासन

गांधी ने कहा था —

> “सभी धर्म सत्य की ओर जाने वाले मार्ग हैं।”
पर आज धर्म रास्ता नहीं, दीवार बन गया है।
प्रार्थनाएँ राजनीति में बदल गईं,
मंदिरों और मस्जिदों के बीच मानवता कहीं भूल गई।
गांधी का भारत अब भी संघर्ष कर रहा है —
अपने ही लोगों के बीच अपना चेहरा खोजने के लिए।




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स्वदेशी का विलाप

चरखे का स्वर अब फैक्ट्रियों के शोर में दब गया है।
हाथों की मेहनत को मशीनों ने निगल लिया।
“कम में संतोष” की जगह
“अधिक में असंतोष” ने ले ली है।
धरती अब कराहती है —
उसकी नसों में लालच का रसायन दौड़ता है।
और कहीं से एक स्वर आता है —

> “पृथ्वी हर ज़रूरत पूरी कर सकती है,
पर किसी एक की लालच नहीं।”




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शिक्षा : ज्ञान से पहले, विवेक का विलुप्त होना

गांधी ने शिक्षा को आत्मा का विस्तार कहा था।
पर आज ज्ञान का मोल बाज़ार तय करता है।
स्कूल अब चरित्र नहीं, प्रतिस्पर्धा सिखाते हैं;
डिग्रियाँ बढ़ीं, पर विवेक घटा।
हम बुद्धिमान हुए, पर संवेदनशील नहीं रहे।
गांधी की तालीम अब पाठ्यक्रम में तो है,
पर जीवन में नहीं।


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गांधी के बाद का आईना

हमने गांधी को नोटों पर छापा,
पर मन पर नहीं।
उनकी मूर्तियाँ बनाईं,
पर विचारों को ठुकराया।
हमने उन्हें राष्ट्रपिता कहा,
पर पुत्रों ने उनकी वसीयत खो दी।

उनकी आत्मा शायद आज भी भारत से पूछती है —

> “क्या तुम वही भारत हो,
जिसके लिए मैंने अपने शरीर का तिल-तिल जलाया था?”




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एक उम्मीद की शेष लौ

फिर भी, सब कुछ खोया नहीं।
हर ग्राम में कोई अब भी चरखा कातता है,
हर युवा के भीतर कोई गांधी अब भी जन्म लेता है।
हर सत्य के मूक संघर्ष में
उनका आशीर्वाद अब भी धड़कता है।

गांधी की राह कठिन है, पर जीवित है।

जब तक कोई झूठ से सत्य तक जाने की हिम्मत करेगा,
जब तक कोई हिंसा पर करुणा को चुनेगा,
जब तक कोई अपने स्वार्थ से ऊपर उठेगा,
गांधी वहीं होंगे —
सादा वेश में, पर शाश्वत सत्य के साथ।




अंतिम पंक्तियाँ

गांधी कोई अतीत नहीं,
वे हमारे हर निर्णय की अंतरात्मा हैं।
हमने बहुत कुछ भुला दिया है,
पर उनका प्रकाश मिटा नहीं।
क्योंकि गांधी कोई व्यक्ति नहीं —
एक प्रश्न हैं, जो आज भी हर पीढ़ी से पूछता है —

> “क्या तुम सत्य में जीना चाहते हो,
या बस स्वतंत्रता के नाम पर भ्रम में?”

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