“वादों का मौसम”
“वादों का मौसम”
फिर आ गया चुनाव का मौसम,
फिर निकली वादों की बारात,
कहीं लैपटॉप, कहीं नौकरी,
कहीं गैस का झूठा सौगात।
नेता बोले — “इस बार बदल देंगे बिहार”,
जैसे पिछली बार गलती से रह गया था काम अधूरा!
किसी ने कहा — “हर हाथ को काम”,
दूसरे ने कहा — “हर जेब में आराम।”
कोई बांटेगा नकद रूपया,
कोई देगा सिलेंडर का सपना,
कोई बोले — “मुफ्त बिजली दूँगा”,
जैसे खुद जनरेटर हो जनाब अपना।
कोई कहे — “बेटी पढ़ेगी, देश बढ़ेगा”,
फिर वही स्कूल की छत टपकेगी,
कक्षा में गुरुजी नहीं मिलेंगे,
बस पोस्टर पर मुस्कुराहट चमकेगी।
युवा पूछे — “भविष्य कहाँ है?”,
नेता बोले — “वादा तो है न!”
कागज़ पे रोजगार गिनाए,
धरातल पर बस भाषण पाए।
किसान बोले — “बीज नहीं है, पानी नहीं है”,
सरकार बोली — “हम देंगे सम्मान।”
पर वही किसान फिर बोझ से टूटा,
और अगली बार फिर वही ऐलान।
जाति, धर्म, और मोहल्ले में,
वादों की नई दीवार उठी,
हर गली में पोस्टर चिपका,
“इस बार हमारी सरकार बनेगी पक्की।”
लोग बोले — “कौन जीतेगा?”
किसी ने कहा — “जो सबसे बड़ा झूठ बोलेगा।”
क्योंकि बिहार की राजनीति में
सत्य बोलने वाला हारता है —
वादे करने वाला जीतता है।
अब जनता भी थोड़ी सयानी है,
थोड़ा थकी, थोड़ी बेईमानी है,
वह जानती है — वादा झूठा है,
फिर भी सुनती है, क्योंकि दिल टूटा है।
वह सोचती है — “क्या पता इस बार सच निकले!”
पर हर बार वही पुराना किस्सा निकले।
नेता फिर कहता है — “हम गरीबों के मसीहा हैं!”
और पीछे से हेलिकॉप्टर में उड़ जाता है।
वही गरीब सड़क पर सोचता है —
“हम तो बस वोट बैंक के डेटा में रह जाते हैं।”
हर चुनाव में वही कहानी,
बस रंग और पार्टी नई जुबानी।
वादा वही, झूठ वही,
भ्रम वही, और जनता वही।
अब जनता से कहना है मेरा —
थोड़ा सोचो, थोड़ा ठहरो,
जो मुफ्त बाँट रहा है,
वह तुम्हारा भविष्य बेच रहा है।
बिहार को अब चाहिए विवेक,
न कि फ्री चीज़ों का मोहक टेक।
क्योंकि जब तक लालच बिकेगा,
राजनीति झूठ बोलेगी,
और जनता हर पाँच साल बाद
फिर वही उम्मीद पालेगी।
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