कैसे माफ़ करूँ शबरी को...

कैसे माफ़ करूँ शबरी को

(लेखक – रूपेश रंजन)

कैसे माफ़ करूँ शबरी को,
जिसने मेरे राम को झूठे बेर दिया,
जिसकी अज्ञान भक्ति ने मर्यादा को
क्षणभर के लिए चुनौती दीया।

वो बेर, जो तोड़े उसके काँपते हाथों ने,
जिसमें था प्रेम, पर लिपटा था अपराध भी,
जिसमें भक्ति की गहराई थी,
पर मर्यादा की रेखा के पार भी।

कैसे कह दूँ कि वो सच्ची थी,
कैसे मान लूँ कि वो निर्दोष थी,
उसने प्रेम किया, पर नियम तोड़ा,
क्या वही भक्ति का बोध थी?

पर जब सोचता हूँ गहराई से,
तो मेरे शब्द कांप जाते हैं,
क्योंकि उस "अपराध" में भी
भक्ति के अमृत छलक जाते हैं।

शबरी — एक वनवासी स्त्री,
जिसकी उम्र ने जीवन का अर्थ खो दिया,
जिसका घर शून्य था, पर मन भरा था
राम की प्रतीक्षा में हर पल जीया।

वो रोज़ झाड़ू लगाती, फूल सजाती,
बेर चुनती, स्वाद चखती,
कहीं कड़वे न हों, कहीं खट्टे न हों,
मेरे राम के लिए बस मीठे रखती।

उसके झुर्रियों भरे चेहरे पर
श्रद्धा का उजाला था,
उसके काँपते हाथों में
समर्पण का प्याला था।

वो नहीं जानती थी शास्त्र,
नहीं जानती थी नीति या ज्ञान,
पर जानती थी बस एक नाम —
“राम... मेरे राम...”

वो भक्ति थी जो किताबों से नहीं,
दिल से निकलती थी,
वो पूजा थी जो वेदों में नहीं,
आँसुओं में पिघलती थी।

फिर भी मन में प्रश्न उठता है —
क्या प्रेम इतना अंधा हो सकता है?
कि भगवान को झूठा फल परोसा जाए,
और वह उसे वरदान बना दे?

राम मुस्कुराए —
क्योंकि उन्होंने फल नहीं, भावना चखी,
उन्होंने बेर नहीं, समर्पण का स्वाद लिया,
उन्होंने अपराध नहीं देखा,
बल्कि एक निर्मल आत्मा का अर्पण देखा।

शबरी का अपराध उसी क्षण
पूजा में परिवर्तित हो गया,
और जो झूठा बेर था,
वह सत्य भक्ति का प्रतीक बन गया।

अब सोचता हूँ —
क्या दोष उसका था या मेरी दृष्टि का?
क्या पाप उसके हाथों में था,
या मेरे मन के निर्णय में था?

राम ने तो उसे गले लगाया,
कहा — "शबरी, तू धन्य है,
तेरी भक्ति ने आज जग को दिखाया,
कि प्रेम में कोई जाति नहीं, कोई वर्ग नहीं।”

उन्होंने कहा —
“भक्ति वह नहीं, जो शास्त्र से निकले,
भक्ति वह है, जो हृदय से फूटे,
जहाँ प्रेम सच्चा हो, वहाँ
भले नियम टूटे।”

तब मुझे समझ आया —
कि मैं जिसे अपराध कह रहा था,
वो तो आत्मा की ऊँचाई थी,
जो मर्यादा से भी ऊपर उठी थी।

कैसे माफ़ करूँ शबरी को?
अब ये प्रश्न नहीं, एक उत्तर बन गया।
क्योंकि उसने मुझे सिखाया,
कि भगवान को पाने का रास्ता तर्क नहीं,
भावना से बनता है।

उसके बेर झूठे नहीं थे,
वो प्रेम के प्रतीक थे,
वो बतलाते हैं —
कि ईश्वर सत्य में नहीं,
भक्ति की सादगी में वास करते हैं।

शबरी — तू अब दोषी नहीं,
तू भक्ति की ज्योति है,
तेरे झूठे बेरों में ही
रामायण की आत्मा जीवित है।

राम ने तेरे बेर खाकर
मनुष्यता को माफ़ किया,
और मैं आज समझ पाया —
कि सच्ची भक्ति नियमों से नहीं,
प्रेम से परिभाषित होती है।

तो अब नहीं कहूँगा —
कैसे माफ़ करूँ शबरी को,
बल्कि कहूँगा —
कैसे माफ़ करूँ ख़ुद को,
जो प्रेम में भी दोष ढूँढता रहा।

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