लालच की राजनीति — बिहार चुनाव और वादों का मेला
लालच की राजनीति — बिहार चुनाव और वादों का मेला
प्रस्तावना
बिहार में जैसे ही चुनावी मौसम आता है, राजनीतिक गलियारों में वादों की बाढ़ आ जाती है। हर पार्टी जनता के सामने “लालच” की नई परिभाषा रखती है — कोई मुफ्त बिजली देता है, कोई नौकरी का झांसा, कोई नकद सहायता, तो कोई सस्ती गैस या लैपटॉप।
लोकतंत्र का उत्सव धीरे-धीरे “लोभ का बाज़ार” बन गया है, जहाँ वोटों की कीमत “मुफ्त योजनाओं” से तय होती है।
दुःखद बात यह नहीं कि वादे किए जाते हैं, बल्कि यह है कि वही वादे आज हमारी राजनीति की रीढ़ बन गए हैं — बिना किसी जवाबदेही और दूरदर्शिता के।
राजनीतिक लालच का इतिहास
आजादी के बाद के शुरुआती वर्षों में बिहार की राजनीति विचारों और आदर्शों पर आधारित थी — समानता, न्याय और समाज सुधार की बातें होती थीं।
लेकिन धीरे-धीरे जातीय समीकरणों, भ्रष्टाचार और सत्ता की होड़ ने राजनीति का चरित्र बदल दिया।
अब चुनाव “नैतिकता के मंच” से उतरकर “लाभ के सौदे” बन गए हैं।
आज की चुनावी घोषणापत्र किताब नहीं, बाजार का कैटलॉग बन गए हैं — जहाँ योजनाओं की जगह लालच बिकता है।
लालच के अलग-अलग रूप
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आर्थिक लालच:
हर चुनाव में “नकद सहायता”, “बेरोजगारी भत्ता” और “कर्ज माफी” जैसे वादे आम हो चुके हैं। ये राहत नहीं देते, बल्कि निर्भरता की आदत डाल देते हैं। -
भौतिक लालच:
छात्रों को लैपटॉप, महिलाओं को सिलेंडर, किसानों को मुफ्त बिजली और राशन — ये सब सुनने में आकर्षक लगते हैं, पर असली समस्याएँ — शिक्षा, रोजगार और स्वास्थ्य — वहीं की वहीं रह जाती हैं। -
जातीय और सामाजिक लालच:
एक खतरनाक रूप वह है जिसमें वोटों के लिए जाति और धर्म के नाम पर वादे किए जाते हैं। किसी को आरक्षण का भरोसा, किसी को जातीय सम्मान का आश्वासन — नतीजा यह कि समाज बँटता गया और मुद्दे मिटते गए। -
रोजगार का लालच:
“दस लाख नौकरियाँ” — हर चुनाव में यही जुमला दोहराया जाता है। पर हकीकत यह है कि बिहार का युवा आज भी काम की तलाश में पंजाब, दिल्ली या मुंबई की ओर पलायन करता है।
जनता का मनोवैज्ञानिक जाल
यह लालच केवल नेताओं का नहीं, जनता का भी बन गया है।
वर्षों की राजनीतिक चालों ने मतदाता की सोच को ऐसा बना दिया है कि वह शासन को “सेवा” नहीं, “सुविधा” समझने लगा है।
अब जनता यह नहीं पूछती कि “सिस्टम सुधरेगा या नहीं”, बल्कि यह पूछती है —
“हमें क्या मिलेगा?”
यह सोच लोकतंत्र की आत्मा को कमजोर करती है और भ्रष्ट राजनीति को मजबूत।
लालच की कीमत
हर “मुफ्त योजना” की एक कीमत होती है — और वह कीमत विकास चुकाता है।
बिहार आज भी शिक्षा, स्वास्थ्य, उद्योग और सड़क जैसी बुनियादी ज़रूरतों में पिछड़ा है।
राजनीतिक दलों का ध्यान नीति-निर्माण से ज़्यादा “जनता को खुश रखने” पर है।
पर यह खुशी अस्थायी है — जैसे कोई मिठाई जो मीठी तो लगे, पर स्वास्थ्य बिगाड़ दे।
बिहार को क्या चाहिए
बिहार को नए वादे नहीं, नई नीयत चाहिए।
ऐसे नेता चाहिए जो जनता को “देने” के बजाय “खड़ा होना” सिखाएँ।
रोजगार की जगह रोज़गार सृजन,
मुफ्त की जगह मौका,
दान की जगह सम्मान मिलना चाहिए।
सच्चा विकास वही है जो आत्मनिर्भरता से आता है, न कि अनुदान से।
निष्कर्ष: लालच का अंत ज़रूरी है
चुनाव लोकतंत्र का पर्व हैं, पर आज वे “नीति की नीलामी” बन गए हैं।
जब तक लालच राजनीति का आधार रहेगा, तब तक विकास केवल भाषणों में रहेगा।
बिहार, जिसने बुद्ध और चाणक्य जैसे विचारकों को जन्म दिया,
वह इस सस्ती राजनीति से कहीं अधिक योग्य है।
अब वक्त है कि जनता और नेता दोनों जागें —
क्योंकि जब राजनीति लालच से चलती है,
तो जनता को केवल पछतावा ही मिलता है।
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