इज़रायल–फ़िलिस्तीन संघर्ष का समाधान : गांधीवादी दर्शन के आधार पर



इज़रायल–फ़िलिस्तीन संघर्ष का समाधान : गांधीवादी दर्शन के आधार पर

दुनिया के सबसे पुराने और जटिल संघर्षों में से एक है — इज़रायल–फ़िलिस्तीन विवाद। यह केवल भूमि या सीमा का प्रश्न नहीं है, बल्कि पीढ़ियों से चले आ रहे दुःख, भय और अविश्वास की कहानी है।
यह संघर्ष इंसानियत के ज़ख्मों को बार-बार कुरेदता है — बच्चों की चीखों, बमों की आवाज़ और आँसुओं की धाराओं के बीच।
ऐसे समय में महात्मा गांधी का दर्शन — सत्य, अहिंसा और करुणा — फिर से एक जीवंत प्रकाश की तरह दिखाई देता है।

गांधीजी की शिक्षाएँ केवल बीते युग की बातें नहीं हैं; वे वर्तमान और भविष्य दोनों के लिए नैतिक दिशा हैं। यदि इस संघर्ष को गांधीवादी दृष्टि से देखा जाए, तो समाधान राजनीति में नहीं, बल्कि मानवता में छिपा है।


संघर्ष का नैतिक पक्ष

गांधीजी मानते थे कि हर राजनीतिक संघर्ष के पीछे एक नैतिक प्रश्न होता है।
इज़रायल–फ़िलिस्तीन विवाद के मूल में है — बेघर होने का दर्द, असुरक्षा की भावना, भय और अपमान का इतिहास।
गांधीजी कहते — “शांति तब तक संभव नहीं, जब तक एक पक्ष दूसरे की मानवता को अस्वीकार करता रहे।”

इस संघर्ष का समाधान तभी संभव है जब दोनों पक्ष यह स्वीकार करें कि हर इंसान — चाहे वह यहूदी हो या मुसलमान — समान रूप से सम्मान और सुरक्षा का अधिकारी है।
गांधीजी का कथन याद आता है —

“संपूर्ण विश्व मेरा परिवार है।”
यही दृष्टि दीवारों को गिराकर पुलों का निर्माण करती है।


अहिंसा — सबसे शक्तिशाली हथियार

गांधीजी के लिए अहिंसा का अर्थ केवल युद्ध न करना नहीं था;
अहिंसा का अर्थ है — दुश्मन को भी प्रेम से जीतना
उन्होंने कहा था — “अहिंसा निर्बलों का नहीं, बलवानों का शस्त्र है।”

इज़रायल और फ़िलिस्तीन दोनों ही वर्षों से यह भ्रम पाल रहे हैं कि सुरक्षा केवल हथियारों से मिल सकती है।
गांधीजी कहते, जब भय समाप्त होता है, तब ही सच्ची सुरक्षा की शुरुआत होती है।
अहिंसा का मार्ग अपनाने का अर्थ है — एक-दूसरे को शत्रु नहीं, पीड़ित के रूप में देखना।
हर गोली एक नई दीवार खड़ी करती है, पर हर क्षमा एक नया द्वार खोलती है।


सत्याग्रह — सत्य की शक्ति

गांधीजी का सत्याग्रह केवल राजनीतिक आंदोलन नहीं, बल्कि आत्मा की पुकार था।
इसका अर्थ है — अन्याय के विरुद्ध बिना हिंसा के, सत्य पर दृढ़ रहना।
इज़रायल–फ़िलिस्तीन के संदर्भ में सत्याग्रह का अर्थ है —
दोनों पक्ष अपनी-अपनी भूलों, अतियों और पीड़ाओं को सच्चाई से स्वीकार करें।

सत्य कठिन होता है, लेकिन वही मुक्ति का मार्ग है।
इज़रायल को यह मानना होगा कि फ़िलिस्तीनियों का दुःख वास्तविक है,
और फ़िलिस्तीन को भी यह स्वीकार करना होगा कि इज़रायल के लोग निरंतर भय और असुरक्षा में जी रहे हैं।
सत्य की स्वीकृति ही संवाद का आरंभ बन सकती है।


अंतरराष्ट्रीय भूमिका — हस्तक्षेप नहीं, सहयोग

गांधीजी बाहरी शक्तियों द्वारा थोपी गई शांति के सख्त विरोधी थे।
उनका मानना था कि जब शांति किसी दबाव से आती है, तो वह स्थायी नहीं होती।
आज विश्व की कई शक्तियाँ इस संघर्ष में अपने स्वार्थ ढूंढ रही हैं — हथियार बेचने में, तेल के सौदों में, या राजनीतिक लाभ में।
गांधीजी कहते, “जहाँ स्वार्थ है, वहाँ शांति नहीं रह सकती।”

अंतरराष्ट्रीय समुदाय को “निर्णायक” नहीं, बल्कि “सत्य का सहयोगी” बनना चाहिए —
ऐसा सहयोगी जो दोनों पक्षों में संवाद, सहानुभूति और करुणा का वातावरण बनाए।


आर्थिक पुनर्निर्माण और नैतिकता

गांधीजी के अनुसार, आर्थिक अन्याय भी हिंसा का रूप है।
उन्होंने ट्रस्टीशिप का सिद्धांत दिया —
जिसमें संपत्ति और शक्ति का उपयोग व्यक्तिगत लाभ के लिए नहीं, बल्कि समाज के कल्याण के लिए किया जाए।

इज़रायल और फ़िलिस्तीन यदि इस सिद्धांत को अपनाएँ,
तो भूमि, जल और संसाधन युद्ध की वस्तु नहीं, बल्कि साझा जिम्मेदारी बन सकते हैं।
गांधीजी के सर्वोदय — “सबका भला” — के आदर्श के अनुसार,
दोनों राष्ट्र एक साथ विकास और शांति के मार्ग पर चल सकते हैं।


क्षमा और पुनर्मिलन

गांधीजी कहते थे — “क्षमा वीरों का आभूषण है।”
वर्षों के रक्तपात के बाद, इस क्षेत्र को सबसे अधिक आवश्यकता है क्षमा की राजनीति की।
क्षमा से इतिहास मिटता नहीं, पर घृणा की जड़ें अवश्य सूख जाती हैं।

दोनों देशों में ऐसे नागरिक आंदोलन शुरू किए जा सकते हैं जहाँ साधारण लोग — शिक्षक, बच्चे, माताएँ, कलाकार — एक-दूसरे से संवाद करें,
कहानियाँ साझा करें और शांति के सूत्र खोजें।
एक इज़रायली बच्चे और एक फ़िलिस्तीनी बच्चे की साझा मुस्कान — वही सच्ची शांति का पहला संकेत होगी।


शिक्षा — शांति का बीज

गांधीजी मानते थे कि शिक्षा का उद्देश्य चरित्र निर्माण है, न कि प्रतिस्पर्धा।
दोनों देशों के विद्यालयों में इतिहास को बदले की भावना से नहीं, समझ और करुणा के भाव से पढ़ाया जाना चाहिए।
पाठ्यपुस्तकों, मीडिया और कला को शत्रुता नहीं, सह-अस्तित्व का संदेश देना चाहिए।
शांति केवल समझौते से नहीं, संस्कार से आती है।


धर्म — विभाजन नहीं, एकता का माध्यम

यह विडंबना है कि जिस भूमि को पवित्र भूमि कहा जाता है, वही हिंसा का केंद्र बन गई है।
गांधीजी ने कहा था — “सभी धर्म एक ही सत्य की ओर जाने वाले भिन्न मार्ग हैं।”
यदि यहूदी, मुसलमान और ईसाई अपने धर्म की आत्मा को समझें,
तो पाएँगे कि तीनों का मूल एक ही है — प्रेम, विनम्रता और सेवा।

सत्य ही सर्वोच्च ईश्वर है — और जब सत्य को ईश्वर माना जाएगा, तब नफरत का मंदिर ढह जाएगा।


गांधीवादी मार्ग — आत्मपरिवर्तन का मार्ग

गांधीवादी समाधान किसी राजनीतिक संधि से नहीं, बल्कि आत्मिक जागरण से शुरू होता है।
गांधीजी कहते — “दुनिया को बदलना है तो पहले स्वयं को बदलो।”

इस संघर्ष के समाधान के लिए गांधीवादी रूपरेखा यह हो सकती है —

  1. नैतिक युद्धविराम, जो राजनीतिक नहीं बल्कि मानवता के आधार पर हो।
  2. सत्य संवाद, जिसमें दोनों पक्ष अपनी भूलें स्वीकार करें।
  3. संयुक्त पुनर्निर्माण, जहाँ दोनों की अर्थव्यवस्था सहयोग से विकसित हो।
  4. जन-आंदोलन, जिसमें आम नागरिक शांति के वाहक बनें।
  5. सांस्कृतिक मेल-जोल, जिससे सहानुभूति और समझ का सेतु बने।

निष्कर्ष

महात्मा गांधी का महत्व आज इस बात में नहीं है कि हम उन्हें पूजते हैं,
बल्कि इस बात में है कि हम उनके सिद्धांतों को जीवन में उतारें।
इज़रायल–फ़िलिस्तीन संघर्ष किसी की जीत से नहीं, बल्कि प्रेम की विजय से समाप्त होगा।

गांधीजी कहते थे — “शांति का अर्थ युद्ध का अभाव नहीं,
बल्कि न्याय, सत्य और करुणा की उपस्थिति है।”

जब दोनों राष्ट्र एक-दूसरे को शत्रु नहीं,
ईश्वर के समान संतान के रूप में देखेंगे —
तब यह भूमि फिर से पवित्र बन जाएगी,
न केवल अपने इतिहास से,
बल्कि अपने वर्तमान की करुणा से।



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