व्यक्तिपूजा – भारत की सबसे बड़ी समस्या (Vyakti Puja: The Cult of Personality and Its Consequences)
व्यक्तिपूजा – भारत की सबसे बड़ी समस्या
(Vyakti Puja: The Cult of Personality and Its Consequences)
भारत ज्ञान, दर्शन और आध्यात्मिकता की भूमि है — एक ऐसा देश जिसने संसार को सत्य, अहिंसा और मानवता के उच्चतम सिद्धांत दिए हैं।
फिर भी, इस गौरवशाली परंपरा के बीच एक गंभीर समस्या आज भी भारतीय समाज को कमजोर बना रही है — व्यक्तिपूजा।
व्यक्तिपूजा का अर्थ है किसी व्यक्ति को उसके विचारों या कर्मों से ऊपर उठाकर अंधभक्ति के स्तर तक पूजना। यह प्रवृत्ति केवल भावनात्मक नहीं, बल्कि सामाजिक और राजनीतिक दृष्टि से भी विनाशकारी है। आज भारत के लगभग हर क्षेत्र — राजनीति, धर्म, समाज और संस्कृति — में व्यक्तिपूजा ने गहरी जड़ें जमा ली हैं।
व्यक्तिपूजा की जड़ें
मानव स्वभावतः किसी आदर्श या नायक की खोज करता है। कठिन समय में उसे ऐसा व्यक्ति चाहिए जो उसकी आशाओं और आकांक्षाओं का प्रतीक बन सके।
किन्तु जब यह प्रशंसा अंध-भक्ति में बदल जाती है, तो समाज सोचने और प्रश्न पूछने की क्षमता खो देता है।
व्यक्तिपूजा की शुरुआत श्रद्धा से होती है, लेकिन धीरे-धीरे यह विवेक को निगल जाती है। व्यक्ति के विचारों या कार्यों का मूल्यांकन करने के बजाय, लोग उसके व्यक्तित्व को ही सत्य का मानक मान लेते हैं।
और जब किसी को प्रश्न करना अपराध बन जाए, तब समाज पतन की ओर बढ़ता है।
राजनीति में व्यक्तिपूजा
आज भारतीय राजनीति में विचारों से अधिक व्यक्तियों का प्रभाव है।
राजनीतिक दल विचारधाराओं के बजाय व्यक्तित्वों के इर्द-गिर्द घूमते हैं। नेता एक पार्टी से बढ़कर राष्ट्र का प्रतीक बना दिया जाता है।
मतदाता नीतियों के बजाय चेहरों पर वोट देते हैं।
लोकतंत्र, जो विवेक और उत्तरदायित्व पर आधारित होना चाहिए, भावनाओं और भक्ति का खेल बन जाता है।
जब जनता प्रश्न करना छोड़ देती है, तब नेता जवाब देना भी छोड़ देते हैं। यही से तानाशाही और भ्रष्टाचार की शुरुआत होती है।
व्यक्तिपूजा लोकतंत्र को जीवंत नागरिकों के समाज से बदलकर, अंधानुयायियों की भीड़ में बदल देती है।
धर्म में व्यक्तिपूजा
भारत का धर्म परंपरागत रूप से आत्म-साक्षात्कार और सत्य की खोज पर आधारित रहा है।
परंतु आधुनिक समय में धर्म भी व्यक्तिपूजा का शिकार हो गया है।
गुरु, संत और प्रवचनकर्ता भगवान से भी ऊपर मान लिए जाते हैं। उनके शब्द अंतिम सत्य बन जाते हैं।
यह प्रवृत्ति धार्मिकता को आत्मचिंतन से हटाकर अंधविश्वास की दिशा में ले जाती है।
धर्म का मूल उद्देश्य — मानवता, करुणा और सत्य — पीछे छूट जाता है।
लोग धर्म के मूल सिद्धांतों को नहीं, बल्कि व्यक्ति विशेष के आदेशों को मानने लगते हैं।
सच्ची भक्ति तब होती है जब हम किसी व्यक्ति नहीं, बल्कि उसके भीतर बसे सिद्धांत की आराधना करें।
समाज और संस्कृति में व्यक्तिपूजा
राजनीति और धर्म के अलावा, व्यक्तिपूजा आज सामाजिक और सांस्कृतिक जीवन का भी हिस्सा बन गई है।
फ़िल्मी सितारे, खेल खिलाड़ी, व्यवसायी या सोशल मीडिया के चेहरे — सभी को देवता जैसा स्थान दिया जाता है।
लोग विचार नहीं, चेहरों को मानते हैं।
चरित्र नहीं, प्रसिद्धि को महत्व देते हैं।
यह प्रवृत्ति समाज को सतही बना रही है, जहाँ लोकप्रियता को नैतिकता से अधिक मूल्य दिया जा रहा है।
सोशल मीडिया ने इसे और बढ़ा दिया है — अब अनुयायियों की संख्या ही सम्मान का पैमाना बन गई है।
यह एक ऐसी दुनिया है जहाँ विचारों की गहराई को ‘लाइक’ और ‘फॉलो’ की चमक में खो दिया गया है।
व्यक्तिपूजा के दुष्परिणाम
व्यक्तिपूजा के प्रभाव केवल नैतिक नहीं, बल्कि राष्ट्रीय स्तर पर विनाशकारी हैं:
- विवेक का ह्रास: जब व्यक्ति ईश्वर बन जाता है, तो प्रश्न करना पाप समझा जाता है।
- नैतिक पतन: सिद्धांतों की जगह निष्ठा ले लेती है, और सच्चाई की जगह चापलूसी।
- संस्थाओं का क्षय: जब व्यक्ति संस्था से बड़ा हो जाता है, तो व्यवस्था कमजोर हो जाती है।
- सामाजिक विभाजन: भक्ति और विरोध के बीच समाज दो हिस्सों में बंट जाता है।
- विचारहीनता: जब आलोचना नहीं होती, तब प्रगति रुक जाती है।
इस प्रकार व्यक्तिपूजा समाज को सोचने वाली जनता से, केवल ताली बजाने वाली भीड़ में बदल देती है।
सिद्धांतपूजा की आवश्यकता
भारत को अब व्यक्तिपूजा नहीं, बल्कि तत्त्वपूजा की आवश्यकता है।
व्यक्ति मरता है, पर सिद्धांत अमर रहते हैं।
राष्ट्र को स्थायित्व और प्रगति उन्हीं समाजों में मिलती है जहाँ लोग व्यक्ति नहीं, मूल्य की पूजा करते हैं — जैसे सत्य, न्याय, करुणा, समानता और ईमानदारी।
हमें ऐसे समाज की आवश्यकता है जहाँ नेता नहीं, विचार केंद्र में हों;
जहाँ सत्ता नहीं, सेवा का सम्मान हो;
जहाँ नारे नहीं, नैतिकता हो।
सच्चा सम्मान किसी व्यक्ति की नहीं, उसके आदर्शों की अनुकरण में है।
शिक्षा और विवेक की भूमिका
व्यक्तिपूजा को मिटाने का सबसे प्रभावी उपाय है — शिक्षा।
शिक्षा का उद्देश्य केवल ज्ञान देना नहीं, बल्कि सोचने की क्षमता जगाना होना चाहिए।
बच्चों को यह सिखाना होगा कि क्या सोचना नहीं, बल्कि कैसे सोचना है।
समाज में ऐसे वातावरण की जरूरत है जहाँ असहमति को सम्मान मिले,
जहाँ आलोचना को देशद्रोह नहीं, सुधार का माध्यम माना जाए,
और जहाँ लोग ‘कौन कह रहा है’ से अधिक ‘क्या कहा जा रहा है’ पर ध्यान दें।
निष्कर्ष: व्यक्तियों से आदर्शों की ओर
व्यक्तिपूजा भारत की सबसे बड़ी कमजोरी है, क्योंकि यह विचारों को दबा देती है और विवेक को पंगु बना देती है।
जब समाज अपनी नैतिक जिम्मेदारी किसी व्यक्ति पर छोड़ देता है, तब वह अपनी आत्मा खो देता है।
राष्ट्र की शक्ति किसी एक नायक में नहीं, बल्कि उसके नागरिकों की चेतना में होती है।
हमारी प्रगति तभी संभव है जब हम व्यक्ति के नाम पर नहीं, सिद्धांतों के नाम पर एकजुट हों।
जब भारत व्यक्ति के बजाय विचार का, चेहरों के बजाय चरित्र का, और प्रसिद्धि के बजाय नीति का सम्मान करना शुरू करेगा —
तब वह न केवल राजनीतिक रूप से, बल्कि नैतिक और सांस्कृतिक रूप से भी सशक्त होगा।
क्योंकि सच्ची सभ्यता का अर्थ है —
व्यक्तियों की नहीं, मूल्यों की पूजा।
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