धर्म, भूख और राजनीति का चेहरा

धर्म, भूख और राजनीति का चेहरा

✍️ लेखक: रूपेश रंजन

धर्म एक आदर्श है — मन की पवित्रता का, आत्मा की स्थिरता का और मानवता के उत्थान का।
पर जब यह आदर्श भूख के आगे खड़ा होता है, तो अक्सर मौन हो जाता है।
क्योंकि भूख को प्रवचन नहीं, भोजन चाहिए;
पेट को उपदेश नहीं, अन्न चाहिए;
और जीवन को केवल विश्वास नहीं, अवसर चाहिए।

आज के युग में धर्म, जो कभी आत्मानुशासन का प्रतीक था,
वह राजनीति का औजार बन गया है।
राजनीतिक दलों ने धर्म और जाति को इस तरह बाँटा है,
जैसे कोई व्यापारी अपने माल को हिस्सों में बाँटकर बेचता हो।
हर चुनाव में ‘धर्म’ और ‘जाति’ नए नारों का रूप लेते हैं —
कभी किसी देवी-देवता के नाम पर,
तो कभी किसी जाति के सम्मान के नाम पर।
पर इन नारों के बीच, जो सबसे ज़्यादा भूखा है,
उसकी झोपड़ी में अब भी चूल्हा ठंडा पड़ा रहता है।

भूख का कोई धर्म नहीं होता।
वह न हिंदू की है, न मुसलमान की,
न सवर्ण की, न दलित की।
भूख बस वही जानती है कि उसे रोटी चाहिए।
पर हमारे समाज ने भूख को भी वर्गों और मतों में बाँट दिया है।
जिसका परिणाम यह हुआ कि असली मुद्दे —
शिक्षा, रोज़गार, चिकित्सा और समानता —
सब पीछे छूट गए हैं।

राजनीति ने धर्म को हथियार बना दिया,
और जाति को गणित।
अब हर मंच पर वादे हैं, भाषण हैं, घोषणाएँ हैं —
पर पेट में अब भी खालीपन है।
नेता मंदिरों-मस्जिदों में झुकते हैं,
पर झोपड़ियों में झाँकने का समय किसी के पास नहीं।
धर्म अब सेवा का माध्यम नहीं रहा,
बल्कि सत्ता का सीढ़ी बन गया है।

धर्म का असली सार तो “मानवता” था —
दया, करुणा, और परोपकार की भावना।
पर आज धर्म का अर्थ बदल गया है —
वोट बैंक, प्रचार और पहचान।
जब कोई गरीब अपने बच्चों को भूख से तड़पता देखता है,
तो उसके लिए धर्म केवल एक शब्द रह जाता है,
जिसका कोई अर्थ नहीं रह जाता।

हमें यह समझना होगा कि
“भूखे पेट में भजन नहीं होता”
सिर्फ कहावत नहीं, एक गूढ़ सामाजिक सत्य है।
जब तक समाज के हर व्यक्ति के पास रोटी नहीं होगी,
तब तक धर्म की चर्चा केवल विलासिता है।
धर्म की सच्ची साधना वही है —
जो भूखे को भोजन दे,
नंगे को वस्त्र दे,
और दुखी को सहारा दे।

राजनीति को भी अब यह समझना होगा कि
धर्म और जाति से नहीं,
न्याय और समानता से ही राष्ट्र बनता है।
वोट की राजनीति नहीं,
विचार की राजनीति करनी होगी —
जहाँ मनुष्य की गरिमा सर्वोपरि हो।

क्योंकि अंततः —
धर्म वही है जो भूख समझे,
और भूख वही जो धर्म का मूल्य सिखाए।




✍️ लेखक: रूपेश रंजन
(साहित्यकार, चिंतक एवं सामाजिक पर्यवेक्षक)

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