गांधी और अस्पृश्यता

गांधी और अस्पृश्यता

वह चला चंपारण से लेकर, हर गाँव और हर राह,
जिसकी सांस में बसी थी, मानवता की चाह।
उसने देखा भारत भू पर, एक गहरी विभाजन रेखा,
जहाँ मनुष्य ही मनुष्य से, कर बैठा था लेखा-जोखा।

छुआछूत के इन काँटों ने, बगिया को कर दिया घायल,
धरती कराही, मानवता रोई, सिसक उठा हर मंदिर, हर आँगन।
गांधी बोले— “ईश्वर नहीं बँटता, जाति या कर्म के बंधन में,
जिसे तुम नीच कहो, वही है शुद्धता के चिंतन में।”

हरिजन— यह नाम उन्होंने दिया प्रेम से,
सम्मान के दीप जलाए स्नेह के क्षेम से।
वे गए दलितों के घरों में, खाया उनके साथ अन्न,
कहा— “सत्य वहीं है, जहाँ मिटे भेद का बंधन।”

साबरमती के तट पर जब, वह चरखा घूमता था,
तो हर धागे में एक संदेश, समानता का झरता था।
कहा उन्होंने— “यदि मंदिर तुम्हें रोकता है आने से,
तो वह ईश्वर का नहीं, अज्ञान के तहखाने से।”

बिन छूए भी कितना छू लिया उन्होंने जन-मन,
एक शब्द से जगाई उन्होंने करुणा की अगन।
कहा— “जो दूसरों को तुच्छ समझे,
वह स्वयं सबसे बड़ा अंधा है।”
यह वचन आज भी गूंजता है, जैसे सत्य का ध्वज उँचा है।

वह चले गाँव-गाँव, झोंपड़ी-झोंपड़ी में,
दलित बालक के नेत्रों में दी ज्योति जीवन की।
उन्होंने नारा दिया— “सबका अधिकार समान हो,
जहाँ मंदिर का द्वार हर जन के लिए खुला हो।”

अस्पृश्यता उनके लिए पाप थी, न केवल दोष,
मानवता की परीक्षा थी, अंतर्मन का खोज।
उन्होंने कहा— “साफ़ करो मन का मल,
सफाई केवल तन की नहीं, आत्मा की भी जल।”

हरिजन सेवक संघ से लेकर, प्रार्थना सभाओं तक,
वे बोले एक ही वचन— “सब हैं एक, सबका है तक।”
उनकी चुप्पी भी बोलती थी, उनकी दृष्टि भी सिखाती,
कि जो ईश्वर में विश्वास रखे, वह मानव से नफरत नहीं कर पाती।

गाँव की मिट्टी में आज भी गूंजते हैं वे स्वर,
जो कहते हैं— “छूना है तो प्रेम से छू, नफरत से नहीं कभी भर।”
उनके चरणों की धूल में है समरसता का बीज,
जो आज भी अंकुरित होता है, बनकर करुणा का ताज।

हे बापू!
तुम्हारी सीख आज भी दीपक बन जलती,
जहाँ छुआछूत के अंधकार को मिटाने की शक्ति पलती।
तुमने सिखाया— “मनुष्य मनुष्य से बड़ा नहीं,
सत्य, प्रेम और सेवा ही है जीवन की लड़ी सही।”

इस धरती पर जब तक बहेगी करुणा की धारा,
गांधी का नाम रहेगा उजियारा।
हरिजन, दलित, गरीब या अमीर—
सबका है एक ही स्वर, एक ही तीर।
“हम सब ईश्वर की संतान हैं,
भेद मिटे— यही सच्ची पहचान है।”



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