"माँ अब छत पर नहीं जाती"



"माँ अब छत पर नहीं जाती"

✍️ रुपेश रंजन

हम किराये पे रहते थे,
एक छोटे से मकान में।
छत पर जाने के लिए
संकरी सी सीढ़ियाँ थीं,
थोड़ी टूटी हुई,
थोड़ी टेढ़ी।

पर माँ रोज़ जाती थी वहाँ।
गर्मी में भी,
ठंडी में भी,
बारिश में भी कभी-कभी।

छत उसकी अपनी थी,
भले मकान किसी और का था।
वो वहीं बैठकर कपड़े सुखाती थी,
कभी अचार पलटती थी,
कभी आसमान को देखती थी।

कभी बस चुपचाप बैठी रहती,
सूरज की किरणें चेहरे पर पड़तीं,
तो आँखें बंद कर लेती।
कहती थी —
"ऊपर हवा ज़्यादा चलती है,
मन हल्का हो जाता है।"

धीरे-धीरे वक्त बदला।
मकान में किरायेदार बढ़े,
छत पर दूसरे लोग आने लगे।
छत पर कमरा बन गया,
कमरा किराये पर लग गया।

अब माँ जाती तो संकोच होता।
वो ऊपर जाती भी,
तो धीरे-धीरे चलती,
जैसे किसी और की छत पर आ गई हो।

धीरे-धीरे संकोच बढ़ गया,
माँ कम जाने लगी।
अब वो नीचे ही बैठती,
खिड़की से आसमान देखती।

कभी मैं पूछता,
“माँ, आज छत पर नहीं गईं?”
वो मुस्कुरा देती,
कहती — “अब ऊपर क्या जाना बेटा।”

फिर ज़िन्दगी ने करवट ली।
मैंने नया मकान बनवाया,
अपना घर,
अपनी ज़मीन पर।

सब कुछ नया था —
दीवारें, दरवाज़े,
रंग, रोशनी,
और एक बड़ी, खुली छत।

माँ के लिए सबसे पहले
वो छत ही बनाई थी मैंने।
सोचा था, अब तो
माँ हर दिन ऊपर जाएगी,
पौधे लगाएगी,
धूप में बैठेगी,
आसमान से बातें करेगी।

पर माँ अब छत पर नहीं जाती।
कहती है —
“ऊपर नहीं जा पाती हूँ।”

मैं हैरान रह गया।
कभी वो तीन मंज़िल चढ़ जाती थी,
अब एक सीढ़ी भी मुश्किल लगती है।

बीमारी तो पहले भी थी,
पर तब वो हिम्मत रखती थी।
अब कहती है —
“थक जाती हूँ जल्दी।”

मुझे लगता है,
शायद अब चाहत ही नहीं रही।
शायद किसी चीज़ की चाहत
तभी तक होती है जब तक वो मिले नहीं।
जब मिल जाती है,
तो उसकी ज़रूरत खत्म हो जाती है।

अब वो नीचे ही रहती है,
वो कुर्सी उसी जगह रखी है
जहाँ से आसमान थोड़ा दिखता है।

कभी मैं ऊपर जाता हूँ,
छत की दीवारों को छूता हूँ,
सोचता हूँ —
माँ यहाँ बैठती थी,
यहीं से आसमान देखती थी।

अब वो आसमान वैसा नहीं लगता।
हवा भी वैसी नहीं लगती।
शायद छत को भी
माँ की याद आती होगी।

कभी मैं कहता हूँ —
“माँ, चलिए न ऊपर,
थोड़ी देर धूप में बैठते हैं।”
वो मुस्कुरा देती है,
कहती है —
“अब ज़रूरत नहीं बेटा,
सूरज तो हर जगह है।”

मैं चुप हो जाता हूँ।
शायद वो सही कहती है।
पर भीतर कहीं कुछ टूट जाता है।

मुझे बुरा लगता है,
जैसे समय धीरे-धीरे
माँ से छत छीन लाया हो।

अब वो बस चुपचाप रहती है,
कभी खिड़की से देखती है
कबूतरों को उड़ते हुए।
कभी बर्तन धोते हुए
गुनगुनाती है कोई पुराना गीत।

पर वो छत…
अब भी खाली है।
धूप पड़ती है,
पर कोई बैठता नहीं।
हवा चलती है,
पर कोई आहट नहीं होती।

कभी मैं ऊपर जाता हूँ,
तो लगता है माँ अब भी वहीं है,
बस अदृश्य हो गई है।

हवा में उसकी साड़ी की खुशबू,
दीवार पर उसके हाथों के निशान,
और आसमान में
उसकी आँखों जैसी शांति।

माँ अब छत पर नहीं जाती,
कहती है — “ऊपर नहीं जा पाती हूँ।”
पर सच तो यह है —
वो अब आसमान के और करीब हो गई है।

अब मैं कुछ कर नहीं पाता,
बस देखता हूँ,
हर शाम जब सूरज ढलता है,
तो लगता है,
छत पर कोई बैठा है —
माँ की तरह,
चुपचाप, मुस्कुराता हुआ।

माँ अब छत पर नहीं जाती…
पर उसकी याद
हर रोज़ ऊपर चली जाती है।



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