अगर गांधी भारत के राष्ट्रपति होते



अगर गांधी भारत के राष्ट्रपति होते

इतिहास के पन्नों में कभी-कभी ऐसे प्रश्न उठते हैं जो हमारी कल्पना को जीवंत कर देते हैं — क्या होता अगर महात्मा गांधी, राष्ट्रपिता, भारत के राष्ट्रपति बनते?
उनकी नैतिकता, सादगी और करुणा के नेतृत्व में देश किस दिशा में बढ़ता? शासन कैसा होता, समाज कैसा होता, और भारत की आत्मा किस रूप में खिलती?

गांधीजी ने स्वयं सत्ता से दूर रहकर यह संदेश दिया कि असली नेतृत्व कुर्सी से नहीं, चरित्र से आता है। फिर भी, यदि वे भारत के राष्ट्रपति बनते, तो भारत शायद एक ऐसा देश बनता जहाँ शासन की आत्मा सत्य, करुणा और आत्मसंयम में बसती।


नैतिकता से ओतप्रोत राष्ट्रपति

अगर गांधीजी भारत के राष्ट्रपति होते, तो राष्ट्रपति भवन भव्यता का नहीं, बल्कि सादगी और नैतिक शक्ति का प्रतीक बन जाता।
वे अपने जीवन को पहले की तरह ही सरल रखते — खादी पहनते, स्वयं चरखा चलाते, और जनता के बीच रहना पसंद करते। उनके लिए राष्ट्रपति होना किसी पद की प्रतिष्ठा नहीं, बल्कि जनसेवा का अवसर होता।

उनका जीवन ही संदेश बन जाता कि राष्ट्र की महानता उसके वैभव में नहीं, उसकी पवित्रता और सच्चाई में निहित है।
उनकी उपस्थिति मात्र से शासन में नैतिकता की नई परिभाषा जुड़ जाती। प्रधानमंत्री से लेकर जनप्रतिनिधि तक सब जानते कि देश की अंतरात्मा राष्ट्रपति भवन में बसती है।


राष्ट्र की अंतरात्मा के रूप में राष्ट्रपति

गांधीजी के राष्ट्रपति होने पर यह पद केवल औपचारिक न रहता — वह राष्ट्र की अंतरात्मा की आवाज़ बन जाता।
वे न तो आदेश देते, न धमकाते, पर उनके शब्दों में इतनी शक्ति होती कि सत्ता खुद को उनके सामने उत्तरदायी महसूस करती।

राजनीतिक संकट या भ्रष्टाचार के समय गांधीजी हस्तक्षेप करते — अहिंसा, सत्य और संवाद के माध्यम से।
उनके साप्ताहिक संबोधन नीतियों के नहीं, बल्कि मूल्यों के संदेश होते — ईमानदारी, आत्मसंयम, समानता और कर्तव्य की प्रेरणा देने वाले।

उनका प्रभाव इतना गहरा होता कि सरकार की हर नीति उस मौन नैतिक दृष्टि के तहत खुद को जांचती।


जनता के बीच का राष्ट्रपति

अगर गांधी राष्ट्रपति होते, तो यह पद सचमुच जनता का राष्ट्रपति कहलाता।
राष्ट्रपति भवन के द्वार केवल नेताओं के लिए नहीं, किसानों, मजदूरों, विद्यार्थियों और गरीबों के लिए खुलते।

वे अधिक समय गांवों में बिताते, जहां वे लोगों के साथ बैठकर उनकी समस्याएँ सुनते। उनके लिए असली भारत वही था — मिट्टी की खुशबू से भरा, आत्मनिर्भर और सरल जीवन वाला भारत।
उनकी यात्राएँ यह संदेश देतीं कि राष्ट्र की शक्ति उसके गांवों में बसती है, न कि शहरों की ऊँची इमारतों में।


अहिंसा — राष्ट्रीय जीवन का मार्गदर्शन

गांधीजी के राष्ट्रपति होने पर अहिंसा केवल व्यक्तिगत मूल्य नहीं, बल्कि राष्ट्रीय नीति का केंद्र बन जाती।
वे विदेश नीति, रक्षा और आंतरिक नीतियों में शांति, संवाद और करुणा की दिशा देते।

विश्व स्तर पर भारत उनके नेतृत्व में शांति का प्रतीक राष्ट्र बन जाता — एक ऐसा देश जो युद्ध नहीं, प्रेम और समझ की भाषा बोलता।
गांधीजी बार-बार यह स्मरण दिलाते कि असली ताकत हथियारों में नहीं, बल्कि आत्मबल और संयम में होती है।


साम्प्रदायिक एकता और सामाजिक सद्भाव

अगर गांधी राष्ट्रपति होते, तो उनका सबसे बड़ा मिशन होता — धर्मों और समुदायों के बीच एकता स्थापित करना।
वे देशभर में यात्रा करते, हिंदू-मुस्लिम-सिख-ईसाई सभी को एक सूत्र में जोड़ने का प्रयास करते।

किसी भी दंगे या तनाव के समय वे व्रत रखते, प्रार्थना करते, और दोनों पक्षों से संवाद करते — एक पिता के रूप में, न कि किसी दल के नेता के रूप में।
उनकी उपस्थिति मात्र से लोगों में यह चेतना फैलती कि भारत की आत्मा एकता, प्रेम और सहिष्णुता में बसती है।


सत्य के माध्यम से शासन का मार्गदर्शन

हालांकि राष्ट्रपति के अधिकार सीमित होते हैं, गांधीजी का प्रभाव सीमाओं से परे होता।
वे प्रधानमंत्री और संसद को सीधे आदेश नहीं देते, लेकिन अपने पत्रों, संवादों और नैतिक आग्रहों के माध्यम से उन्हें सही दिशा में प्रेरित करते।

अगर कोई नीति गरीबों या पर्यावरण के विरुद्ध होती, तो वे विनम्रता से परंतु दृढ़ता से कहते — “इससे जनकल्याण नहीं होगा।”
उनकी शैली सत्ता को आत्ममंथन करने पर विवश कर देती।

इस प्रकार, गांधीजी के राष्ट्रपति होने पर शासन में नैतिक जवाबदेही और मानवीय संवेदना की नई परंपरा जन्म लेती।


राजकीय सादगी का आदर्श

राजकीय भोजों, औपचारिकताओं और विलासिता की जगह गांधीजी सेवा, सादगी और मानवता को बढ़ावा देते।
विदेशी मेहमानों के स्वागत में चांदी की थालियाँ नहीं, बल्कि आत्मीय मुस्कान और भारतीय आत्मा की गर्मजोशी होती।

राष्ट्रपति भवन का खर्च घट जाता, लेकिन उसकी गरिमा और नैतिक ऊँचाई बढ़ जाती।
गांधीजी की उपस्थिति से भारत केवल राजनीतिक नहीं, बल्कि आध्यात्मिक महाशक्ति बन जाता।


एक गांधीवादी राष्ट्रपति की विरासत

अगर गांधी राष्ट्रपति होते, तो भारत शायद आर्थिक रूप से धीमी गति से बढ़ता, पर नैतिक रूप से बहुत ऊँचा उठता।
गरीबी तुरंत समाप्त न होती, पर अन्याय और शोषण के विरुद्ध सामूहिक चेतना जागती।
उनकी अध्यक्षता एक जीवित उदाहरण होती कि सच्चा नेतृत्व पद में नहीं, बल्कि सेवा में है।

उनकी सोच सिखाती कि शक्ति जब सत्य और प्रेम से निर्देशित होती है, तो वह शासन नहीं, सेवा का रूप ले लेती है।


निष्कर्ष — सत्ता से ऊपर आत्मा

अगर गांधी भारत के राष्ट्रपति होते, तो वे यह सिद्ध करते कि किसी राष्ट्र का सर्वोच्च पद उसकी सत्ता का नहीं, बल्कि आत्मा का प्रतीक है।
वे सिखाते कि लोकतंत्र केवल मतदान की प्रक्रिया नहीं, बल्कि आत्म-अनुशासन और सामूहिक चेतना की यात्रा है।

और शायद अंततः, अपने स्वभाव के अनुरूप, गांधीजी उस पद को भी त्याग देते — ताकि फिर से आम लोगों के बीच लौट सकें, चरखा चला सकें, बच्चों को सिखा सकें, और समाज की सेवा कर सकें।

क्योंकि उनके लिए, मानवता की सेवा ही सबसे सच्चा शासन थी।



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