तीन मंज़िलों का अकेलापन
तीन मंज़िलों का अकेलापन
✍️ रूपेश रंजन
मैं सबसे ऊपर वाली मंज़िल पर रहता हूँ,
माँ बीच वाली पर,
और पिताजी — सबसे नीचे।
तीन मंज़िलों का यह घर,
जैसे तीन पीढ़ियों की तीन कहानियाँ,
एक ही छत के नीचे,
पर सबके जीवन अलग-अलग दिशाओं में बँटे हुए।
पत्नी दूर नौकरी करती है,
मेरे साथ नहीं रहती।
उसकी हँसी अब फोन की स्क्रीन पर बसती है,
और उसकी थकान — मेरी कल्पना में उतरती है।
वो कहती है, “सब ठीक है”,
मैं भी कहता हूँ, “हाँ, सब ठीक है।”
पर उस “ठीक” के बीच
कितना सन्नाटा होता है —
यह सिर्फ हम दोनों जानते हैं।
पिताजी भी रोज़ सुबह निकल जाते हैं,
शाम को थककर लौटते हैं,
चेहरे पर अब भी वही अनुशासन,
वही वर्षों पुराना संघर्ष।
माँ बीच की मंज़िल पर
धीरे-धीरे अपने कमरे में
भजन सुनती हैं, और
कभी-कभी पुरानी तस्वीरें पलटती हैं —
शायद उन दिनों को ढूँढती हैं
जब घर एक मंज़िल का था
और सब साथ रहते थे।
भाई भी दूसरे शहर में नौकरी करता है,
वहाँ अपने परिवार के साथ रहता है।
कभी-कभी फोन पर बात होती है,
पर अब बातों में वो अपनापन नहीं रहा
जो बचपन की लड़ाइयों और हँसी में था।
बहन भी नौकरी करती है दूसरे शहर में,
हर शनिवार को आती है,
और सोमवार तड़के चली जाती है।
उसके आने से कुछ वक्त के लिए
घर में रौनक लौट आती है,
माँ के चेहरे पर मुस्कान आ जाती है,
और फिर उसके जाते ही
घर फिर अपने सन्नाटे में लौट जाता है।
मैं सुबह निकलता हूँ,
शाम को लौटता हूँ,
पर घर में लौटकर
कभी-कभी लगता है
कि दीवारें भी मुझसे सवाल करती हैं —
“तुम इतने लोगों के बीच रहकर भी अकेले क्यों हो?”
शायद इसलिए कि
अब बातें कम हैं,
और सोचें ज़्यादा।
अब हँसी की गूंज नहीं,
बल्कि मोबाइल की घंटियाँ सुनाई देती हैं।
तीन मंज़िलें —
तीन ज़िंदगियाँ —
एक छत के नीचे,
फिर भी हर मंज़िल
अपनी दुनिया में गुम है।
माँ का भक्ति में सुकून,
पिता का कर्म में विश्वास,
भाई का परिवार में व्यस्त जीवन,
बहन की भागती-दौड़ती नौकरी,
और मेरा —
खामोशी में कविता ढूँढ लेना।
कभी बालकनी में बैठकर
सूरज को ढलते देखता हूँ,
तो लगता है —
वो भी रोज़ लौटता है
थकान और उम्मीद लेकर,
जैसे हम सब लौटते हैं
अपने-अपने मंज़िलों पर,
अपनी-अपनी चुप्पियों के साथ।
अकेलापन अब डर नहीं लगता,
क्योंकि अब समझ आया —
जब इंसान खुद से बात करना सीख जाता है,
तो दुनिया की हर दूरी छोटी लगती है।
— रूपेश रंजन
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