अगर नाथूराम गोडसे गांधीजी से असहमत थे, तो उनके पास क्या विकल्प थे?
अगर नाथूराम गोडसे गांधीजी से असहमत थे, तो उनके पास क्या विकल्प थे?
इतिहास ऐसे कई क्षणों का साक्षी है जब असहमति ने समाजों और राष्ट्रों को नया आकार दिया है — कभी रचनात्मक रूप में, तो कभी विनाशकारी रूप में। 30 जनवरी 1948 का दिन भारतीय इतिहास में एक ऐसा ही दुखद क्षण था जब नाथूराम गोडसे ने महात्मा गांधी की हत्या कर दी। यह घटना केवल एक व्यक्ति की हत्या नहीं थी, बल्कि उस नैतिक चेतना पर आघात थी जिसने भारत को स्वतंत्रता की ओर अग्रसर किया था।
अगर गोडसे गांधीजी के विचारों से असहमत थे, तो उनके पास असहमति व्यक्त करने के कई शांतिपूर्ण और लोकतांत्रिक रास्ते मौजूद थे। हिंसा कभी समाधान नहीं होती, और विशेषकर उस व्यक्ति के खिलाफ तो बिल्कुल नहीं, जिसने जीवनभर अहिंसा को अपना धर्म माना।
1. शांतिपूर्ण असहमति का मार्ग
स्वतंत्रता के बाद भारत में लोकतंत्र की नींव रखी जा रही थी। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता हर नागरिक का अधिकार था। गोडसे चाहें तो अपने विचारों को लेख, भाषण या संवाद के माध्यम से रख सकते थे।
गांधीजी स्वयं आलोचना का स्वागत करते थे। वे विरोधियों की बात सुनते थे और उनसे संवाद के लिए सदा तत्पर रहते थे।
अगर गोडसे को लगता था कि गांधीजी की नीतियाँ देश के हित में नहीं हैं, तो वे तर्क और विचार के स्तर पर उनसे बहस कर सकते थे। विचारों की लड़ाई कलम से लड़ी जा सकती थी, बंदूक से नहीं।
2. राजनीतिक भागीदारी और वैचारिक संघर्ष
भारत में स्वतंत्रता के बाद राजनीतिक भागीदारी के द्वार सभी के लिए खुले थे। गोडसे अपनी विचारधारा के अनुरूप कोई राजनीतिक दल बना सकते थे या किसी मौजूदा संगठन से जुड़ सकते थे।
लोकतंत्र का अर्थ यही है कि हर विचार को स्थान मिले, बशर्ते वह हिंसा और नफरत से दूर हो।
यदि गोडसे को लगता था कि गांधीजी का प्रभाव राष्ट्र की दिशा गलत कर रहा है, तो वे जनसेवा और राजनीतिक कार्य के माध्यम से अपनी वैचारिक दिशा को स्थापित कर सकते थे। इस तरह वे इतिहास में एक विचारक के रूप में याद किए जाते, हत्यारे के रूप में नहीं।
3. वैचारिक आलोचना और संवाद
गांधीजी का जीवन संवाद और आत्ममंथन पर आधारित था। उन्होंने कहा था — “यदि तुम मुझसे असहमत हो, तो मुझे प्रेम से बदलने का प्रयास करो।”
गोडसे गांधीजी की नीतियों — जैसे हिंदू-मुस्लिम एकता, अहिंसा या विभाजन पर दृष्टिकोण — की आलोचना लेखों या पुस्तकों के माध्यम से कर सकते थे।
अगर उन्होंने तर्कपूर्ण और ऐतिहासिक विश्लेषण प्रस्तुत किया होता, तो वह भारत के वैचारिक इतिहास में योगदान देता।
परंतु हिंसा ने उनके विचारों की विश्वसनीयता को समाप्त कर दिया। हत्या से विचार नहीं जीतते, बल्कि विचार मर जाते हैं।
4. एक वैकल्पिक आंदोलन की स्थापना
गोडसे चाहें तो एक वैचारिक या सामाजिक आंदोलन की नींव रख सकते थे। यदि वे मानते थे कि गांधीजी की राह गलत है, तो वे अपनी राह पर चलकर समाज को सुधारने का प्रयास कर सकते थे — शिक्षा, सेवा या सांस्कृतिक पुनर्जागरण के माध्यम से।
गांधीजी ने भी अपने आंदोलन की शुरुआत जनजागरण से की थी, न कि हिंसा से।
एक संगठित, शांतिपूर्ण वैचारिक आंदोलन समाज को दिशा दे सकता था, पर हिंसा केवल अंधकार फैलाती है।
5. आत्मचिंतन और नैतिक दृष्टि
सच्चा साहस introspection (आत्मचिंतन) में होता है। गांधीजी स्वयं जब भी किसी बात में गलती देखते थे, तो उसे स्वीकार कर सुधार लेते थे।
गोडसे भी यदि ईमानदारी से विचार करते कि क्या घृणा और हत्या किसी भी समस्या का समाधान हो सकती है, तो शायद इतिहास का चेहरा अलग होता।
हत्या एक क्षणिक प्रतिक्रिया थी, विचार एक शाश्वत शक्ति।
अहिंसा केवल गांधी का सिद्धांत नहीं था, बल्कि मानवता की आत्मा थी।
निष्कर्ष: असहमति लोकतंत्र की आत्मा है, हिंसा उसका विनाश
इतिहास यह सिखाता है कि असहमति अपराध नहीं, लेकिन हिंसा अवश्य है। गांधीजी की हत्या ने उनके विचारों को समाप्त नहीं किया — बल्कि उन्हें और भी अमर बना दिया।
अगर नाथूराम गोडसे ने तर्क, प्रेम और संवाद का रास्ता चुना होता, तो वे एक विचारधारा के प्रणेता के रूप में याद किए जाते, न कि एक हत्यारे के रूप में।
भारत का लोकतंत्र उसी दिन परिपक्व हुआ जब उसने यह समझा कि —
विचार को विचार से हराया जा सकता है, व्यक्ति को मारकर नहीं।
महात्मा गांधी के शब्द आज भी उतने ही प्रासंगिक हैं:
“आँख के बदले आँख, अंत में पूरी दुनिया को अंधा बना देती है।”
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