अगर गोडसे एक सफल नेता होते और गांधीजी उनसे असहमत होते — तब गांधीजी क्या करते?



अगर गोडसे एक सफल नेता होते और गांधीजी उनसे असहमत होते — तब गांधीजी क्या करते?

इतिहास अक्सर हमें ऐसे विरोधाभासों से रूबरू कराता है, जो हमें मनुष्य और विचार की गहराई समझने पर मजबूर कर देते हैं।
कल्पना कीजिए — अगर नाथूराम गोडसे के विचार और सिद्धांत समाज में प्रमुख हो गए होते, वह एक सफल नेता बन गए होते, और महात्मा गांधी, उनके सिद्धांतों से असहमत होकर, एक सामान्य व्यक्ति की तरह उस व्यवस्था में रह रहे होते — तो गांधीजी क्या करते?

यह प्रश्न केवल दो व्यक्तियों के बीच नहीं है; यह अहिंसा और हिंसा, प्रेम और घृणा, सत्य और शक्ति के बीच का शाश्वत संघर्ष है।


1. गांधीजी असहमति के अधिकार का सम्मान करते

गांधीजी मानते थे कि “सत्य को बलपूर्वक नहीं थोपा जा सकता, उसे प्रेम और संवाद से समझा जा सकता है।”
अगर वे एक ऐसे समाज में होते जहाँ गोडसे के विचार शासन कर रहे होते — जहाँ शक्ति, क्रोध या प्रतिशोध का बोलबाला होता — तब भी गांधीजी असहमति के अधिकार की रक्षा करते।

वे कहते — हर व्यक्ति को सोचने, कहने और असहमत होने का अधिकार है।
वे गोडसे की विचारधारा का विरोध करते, लेकिन गोडसे के अनुयायियों से घृणा नहीं करते। उनके लिए असहमति पवित्र थी, लेकिन नफरत पाप।


2. वे सत्याग्रह का मार्ग अपनाते — अहिंसक प्रतिरोध

गांधीजी का सबसे बड़ा हथियार तलवार नहीं, आत्मा थी।
अगर वे गोडसे की नीतियों वाले शासन में होते, तो वे सत्याग्रह का रास्ता अपनाते।

वे जनता के बीच जाते, गरीबों और पीड़ितों के साथ रहते, और हिंसा के विरुद्ध प्रेम और करुणा का आंदोलन चलाते।
वे जेल जाते, उपवास रखते, लेकिन नफरत के आगे झुकते नहीं।

गांधीजी कहते थे — “असत्य के साथ सहयोग करना पाप है।”
इसलिए वे अन्यायपूर्ण नियमों का पालन न करते, लेकिन किसी को चोट भी नहीं पहुँचाते।


3. संवाद को हथियार बनाते, विनाश को नहीं

गोडसे ने विरोध का उत्तर हिंसा से दिया, लेकिन गांधीजी सदैव संवाद में विश्वास रखते थे।
अगर वे असहमत होते, तो वे गोडसे से भी कहते — “आओ, हम बैठकर बात करें।”

गांधीजी के लिए राजनीति का अर्थ केवल सत्ता नहीं, बल्कि नैतिकता था।
वे कहते — “साधन और साध्य दोनों पवित्र होने चाहिए।”
इसलिए वे हिंसा का उत्तर तर्क, प्रेम और सत्य से देते।

वे पत्र लिखते, भाषण देते, यात्राएँ करते और लोगों के दिलों में करुणा जगाने का प्रयास करते — ताकि समाज घृणा से नहीं, प्रेम से बदले।


4. वे करुणा और सेवा के छोटे केंद्र बनाते

अगर गांधीजी को गोडसे की विचारधारा वाला शासन अस्वीकार्य लगता, तो वे विद्रोह नहीं करते — वे निर्माण करते।
वे छोटे-छोटे आश्रम, स्कूल और सेवा केंद्र स्थापित करते, जहाँ लोग प्रेम, समानता और सरलता से जीवन जीना सीखें।

गांधीजी मानते थे कि परिवर्तन सत्ता से नहीं, समाज से आता है।
वे चर्खा चलाते, बच्चों को शिक्षा देते और मानवता के बीज बोते।
वे जानते थे — एक सत्यनिष्ठ जीवन, हजारों भाषणों से अधिक प्रभावशाली होता है।


5. वे क्षमा करते — क्योंकि क्षमा ही साहस है

अगर गोडसे की विचारधारा से उन्हें कोई चोट पहुँचती, तो गांधीजी उसे भी क्षमा कर देते।
उनके लिए क्षमा कमजोरी नहीं, बल्कि सबसे बड़ी शक्ति थी।
वे कहते थे — “मैं पाप से घृणा करता हूँ, पापी से नहीं।”

जहाँ लोग प्रतिशोध को न्याय मानते, वहाँ गांधीजी करुणा को विजय मानते।
वे मरते दम तक यही कहते — “हे राम।”
उनका जीवन और मृत्यु दोनों यही सिखाते हैं कि प्रेम ही अंततः जीतता है।


6. ऐसे विश्व में गांधीजी की विरासत

अगर गोडसे की विचारधारा ने समाज पर शासन किया होता, तो भी गांधीजी की आत्मा अमर रहती।
वे स्मारक नहीं बनाते, लेकिन चेतना के आंदोलन ज़रूर खड़े करते।
वे शासन नहीं करते, लेकिन लोगों के दिलों में विवेक जगाते।

और समय के साथ दुनिया फिर यह समझती कि हिंसा युद्ध जीत सकती है, लेकिन मनुष्यता हार जाती है।
जबकि अहिंसा पीड़ित होती है, पर अंत में विजयी होती है।


निष्कर्ष: गांधी हर परिस्थिति में गांधी ही रहते

गांधीजी की असली शक्ति सत्ता में नहीं, बल्कि उनकी आत्मा में थी।
अगर वे गोडसे की विचारधारा वाले युग में भी जीवित होते, तो वे फिर भी सत्य, प्रेम और करुणा का मार्ग अपनाते।

वे नफरत का उत्तर नफरत से नहीं, बल्कि प्रेम से देते।
वे विरोधी विचारों से नहीं डरते, बल्कि उन्हें मानवीय बनाते।

शायद इतिहास उन्हें उस समय “विरोधी” कहता, लेकिन समय उन्हें फिर “महात्मा” कहता।

क्योंकि गांधीजी के लिए साधन ही साध्य था —
और चाहे दुनिया किसी की भी हो जाए, गांधी सदा सत्य की दुनिया में ही रहते।



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