क्या यह बेहतर नहीं होता कि गांधीजी और गोडसे दोनों जीवित रहते?
क्या यह बेहतर नहीं होता कि गांधीजी और गोडसे दोनों जीवित रहते?
इतिहास अधूरे संवादों से भरा हुआ है। कई बार सबसे महत्वपूर्ण वार्तालाप इसलिए समाप्त हो जाते हैं क्योंकि हिंसा एक पक्ष की आवाज़ को सदा के लिए मौन कर देती है।
महात्मा गांधी और नाथूराम गोडसे का संबंध भी एक ऐसा ही अधूरा संवाद है — एक ओर करुणा, सत्य और अहिंसा के पुजारी गांधी, और दूसरी ओर आक्रोश, राष्ट्रभक्ति और असंतोष से प्रेरित गोडसे।
दोनों एक ही देश की मिट्टी में जन्मे, एक ही स्वतंत्रता संग्राम से प्रभावित हुए, लेकिन दोनों के रास्ते और सत्य को समझने का तरीका बिल्कुल अलग था।
तो क्या यह बेहतर नहीं होता कि दोनों जीवित रहते — बहस करते, प्रश्न करते, और शायद एक-दूसरे को समझ भी पाते?
1. विपरीत विचारों का सह-अस्तित्व ही सभ्यता की पहचान है
एक परिपक्व समाज असहमति से नहीं डरता — वह उससे सीखता है।
अगर गांधीजी और गोडसे दोनों जीवित रहते, तो भारत शायद इतिहास की सबसे बड़ी वैचारिक बहस का साक्षी बनता।
उनका संवाद यह सिखाता कि “सत्य प्रश्नों से कमजोर नहीं होता, बल्कि और सशक्त होता है।”
गांधीजी का नैतिक बल और गोडसे का उग्र राष्ट्रवाद — इन दोनों के बीच एक गहरी आत्मचिंतन की प्रक्रिया शुरू हो सकती थी।
जहाँ गोली चली, वहाँ अगर संवाद होता — तो शायद भारत और अधिक परिपक्व होता।
2. लोकतंत्र को संवाद चाहिए, मृत्यु नहीं
जब गोडसे ने गांधीजी की हत्या की, तब केवल एक व्यक्ति नहीं मरा — एक युग का संवाद समाप्त हो गया।
लोकतंत्र तभी जीवित रहता है जब विचार टकराते हैं, व्यक्ति नहीं।
अगर दोनों जीवित रहते, तो देश यह सीखता कि असहमति राजद्रोह नहीं, बल्कि लोकतंत्र का सार है।
गोडसे खुले मंचों पर अपने विचार रख सकते थे, और गांधीजी अपने स्वभाव के अनुसार धैर्यपूर्वक सुनते।
इस प्रक्रिया में भारत यह सीखता कि असहमति से राष्ट्र टूटता नहीं, बल्कि मजबूत होता है।
3. गांधीजी की करुणा, गोडसे के क्रोध को पिघला सकती थी
गांधीजी में एक अद्भुत शक्ति थी — विरोधियों को भी प्रेम से जीत लेने की।
उन्होंने अंग्रेजों, आलोचकों और यहां तक कि विरोधी नेताओं को भी अपनी सादगी और क्षमा से प्रभावित किया।
अगर गोडसे उनसे आमने-सामने बहस करते, तो संभव है कि गांधीजी की करुणा उनके क्रोध को शांत कर देती।
गांधीजी कहते थे — “पाप से घृणा करो, पापी से नहीं।”
शायद उनका प्रेम, गोडसे के भीतर छिपे पश्चाताप को जगा देता।
4. गोडसे की आलोचना से गांधीजी और मजबूत हो सकते थे
गांधीजी महान थे, लेकिन त्रुटिहीन नहीं।
उनके समकालीन — नेहरू, टैगोर, आंबेडकर — सभी ने उनसे असहमति जताई थी।
अगर गोडसे जीवित रहते, तो उनकी कठोर आलोचना गांधीवादी विचारधारा को और अधिक परिपक्व बना सकती थी।
सच्चे विचार की सबसे बड़ी कसौटी है — आलोचना को स्वीकार करना।
गांधीजी स्वयं बदलने से नहीं डरते थे।
शायद गोडसे जैसे आलोचक उन्हें और प्रासंगिक बनाते।
5. दोनों की अनुपस्थिति से राष्ट्र असंतुलित हो गया
गांधीजी की मृत्यु ने भारत से उसका नैतिक आधार छीन लिया, और गोडसे की मृत्यु ने हमें उस क्रोध को समझने का अवसर नहीं दिया जो स्वतंत्रता के बाद भी समाज में था।
अगर दोनों जीवित रहते, तो एक संतुलन बन सकता था —
गांधीजी करुणा सिखाते, गोडसे असंतोष की जड़ें उजागर करते।
संवाद से एक ऐसा भारत बन सकता था जो न तो केवल आदर्शों में उलझा होता, न ही केवल कटुता में डूबा।
वह भारत शायद और साहसी, और दयालु होता।
6. हिंसा प्रश्नों को समाप्त करती है, संवाद समझ पैदा करता है
गोडसे की गोली ने केवल गांधीजी का शरीर नहीं, बल्कि संवाद की संभावना को भी मार दिया।
अगर दोनों जीवित रहते, तो विश्व एक नई संस्कृति देखता — जहाँ विरोध का उत्तर प्रेम से दिया जाता।
गांधीजी क्षमा की बात करते, गोडसे राष्ट्रवाद की, और इन दोनों के बीच कहीं एक नई सच्चाई जन्म लेती।
क्योंकि सच्चाई हमेशा संघर्षों के बीच से निकलती है, विनाश से नहीं।
निष्कर्ष: भारत का अधूरा संवाद
गांधी और गोडसे की कहानी केवल हत्या या विचार की नहीं, बल्कि अधूरे संवाद की कहानी है।
अगर दोनों जीवित रहते, तो वह संवाद भारत की सबसे बड़ी नैतिक शिक्षा बन सकता था।
गांधीजी शायद क्रोध को समझते, और गोडसे क्षमा को।
दोनों जीवित रहते तो शायद वे हमें सिखाते कि विरोध का अर्थ दुश्मनी नहीं होता, और प्रेम का अर्थ कमजोरी नहीं।
इतिहास को और हत्यारे नहीं चाहिए, उसे संवाद करने वाले लोग चाहिए।
हाँ — यह सचमुच बेहतर होता अगर गांधीजी और गोडसे दोनों जीवित रहते,
क्योंकि उनके जीवित रहने से भारत यह सीख पाता कि —
शांति का अर्थ संघर्ष का अंत नहीं, बल्कि समझ की उपस्थिति है।
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