महात्मा गांधी और हिंदी भाषा का उनका दृष्टिकोण

महात्मा गांधी और हिंदी भाषा का उनका दृष्टिकोण

महात्मा गांधी के लिए भाषा केवल संवाद का माध्यम नहीं थी — वह एकता का सेतु, आत्मा का दर्पण और भारत की सांस्कृतिक पहचान थी। आज़ादी के संघर्ष के दौरान गांधीजी ने जिस तरह सत्य, अहिंसा और स्वराज की बात की, उसी तरह उन्होंने हिंदी भाषा को भी राष्ट्रीय एकता का सबसे सशक्त माध्यम माना। गांधीजी के विचारों में हिंदी केवल एक भाषा नहीं, बल्कि एक जनशक्ति थी जो भारत के विविध समाज को एक सूत्र में पिरो सकती थी।


राष्ट्रीय एकता में भाषा की भूमिका

गांधीजी मानते थे कि भारत की स्वतंत्रता केवल राजनीतिक आज़ादी तक सीमित नहीं होनी चाहिए, बल्कि वह सांस्कृतिक और नैतिक पुनर्जागरण का भी प्रतीक होनी चाहिए।
उनका विश्वास था कि यदि देश को एक सूत्र में बाँधना है, तो एक साझी भाषा का होना आवश्यक है — ऐसी भाषा जो सबको जोड़ सके, सबकी भावनाओं को व्यक्त कर सके।

उनके अनुसार, देवनागरी लिपि में हिंदी ऐसी भाषा थी जो अधिकांश भारतीयों द्वारा समझी जा सकती थी और जिसे आसानी से सीखा जा सकता था।
उन्होंने यंग इंडिया में लिखा था —

“हिंदी भारत की जनता की भाषा है। यह वह भाषा है जो आसानी से भारत की राष्ट्रीय भाषा बन सकती है।”


गांधीजी और “हिंदुस्तानी” का विचार

गांधीजी का दृष्टिकोण केवल हिंदी तक सीमित नहीं था। वे हमेशा “हिंदुस्तानी” भाषा के पक्ष में रहे — जो हिंदी और उर्दू का सम्मिलित रूप थी।
उनका मानना था कि भारत की साझा संस्कृति को प्रतिबिंबित करने वाली भाषा वही हो सकती है जिसमें दोनों परंपराओं का संगम हो।

उन्होंने कहा था —

“हिंदुस्तानी को देवनागरी और उर्दू दोनों लिपियों में लिखा जाना चाहिए। यह ऐसी भाषा होनी चाहिए जिसे आम लोग समझ सकें।”

यह विचार गांधीजी की सद्भावना और एकता की भावना का प्रतीक था। उनके लिए भाषा का उद्देश्य लोगों को जोड़ना था, बाँटना नहीं।


भाषा और शिक्षा

गांधीजी के लिए भाषा का प्रश्न शिक्षा से गहराई से जुड़ा हुआ था। वे मानते थे कि शिक्षा हमेशा मातृभाषा या निकट की भाषा में होनी चाहिए, ताकि ज्ञान सब तक पहुँच सके।
उनका विश्वास था कि अंग्रेज़ी में शिक्षा ने भारतीयों को उनकी जड़ों से काट दिया है और शिक्षा को केवल कुछ वर्गों तक सीमित कर दिया है।

अपने नई तालीम (Nai Talim) के सिद्धांत में उन्होंने कहा —

“किसी जनता से उसकी भाषा छीन लेना, उसकी आत्मा को छीन लेने के समान है।”

हिंदी और अन्य भारतीय भाषाओं में शिक्षा देने से, गांधीजी के अनुसार, भारत सच्चे अर्थों में आत्मनिर्भर और सांस्कृतिक रूप से समृद्ध बन सकता था।


सेवा और सादगी की भाषा के रूप में हिंदी

गांधीजी के लिए हिंदी जनता की भाषा थी — किसान की, मज़दूर की, शिक्षक की, और सामान्य भारतीय की।
वे मानते थे कि सच्ची भाषा वही है जो जन-जन तक पहुँचे, न कि केवल विद्वानों के बीच सीमित रहे।
गांधीजी स्वयं अपने लेखन और भाषणों में हिंदी का उपयोग करते थे ताकि उनका संदेश हर भारतीय तक पहुँच सके।

उनका विश्वास था कि जब नेता जनता की भाषा में बोलेगा, तभी उसका संदेश दिल तक पहुँचेगा।


विरोध और गांधीजी की स्पष्टता

गांधीजी के विचारों से हर कोई सहमत नहीं था। दक्षिण भारत और कुछ अन्य गैर-हिंदीभाषी क्षेत्रों के नेताओं को डर था कि हिंदी थोप दी जाएगी।
लेकिन गांधीजी ने हमेशा स्पष्ट किया कि उनका उद्देश्य किसी भाषा को थोपना नहीं, बल्कि आपसी समझ और एकता बढ़ाना है।

वे कहते थे कि हर क्षेत्रीय भाषा का आदर होना चाहिए। हिंदी का स्थान केवल एक संपर्क भाषा (link language) के रूप में होना चाहिए, न कि अन्य भाषाओं के स्थान पर।


गांधीजी की विरासत और आज की हिंदी

स्वतंत्र भारत की भाषा नीति में गांधीजी के विचारों का गहरा प्रभाव रहा। हिंदी को आज भारत की एक राजभाषा के रूप में मान्यता प्राप्त है।
गांधीजी की प्रेरणा ने हिंदी को केवल एक सरकारी भाषा नहीं, बल्कि भारतीय अस्मिता का प्रतीक बना दिया।

आज जब दुनिया तेजी से वैश्वीकरण की ओर बढ़ रही है, गांधीजी की यह सीख और भी प्रासंगिक हो जाती है —

“किसी राष्ट्र की आत्मा उसकी भाषा में बसती है।”

हमें यह समझना होगा कि आधुनिकता का अर्थ अपनी जड़ों से कटना नहीं है, बल्कि अपनी भाषा और संस्कृति के साथ आत्मविश्वास के साथ आगे बढ़ना है।


निष्कर्ष

महात्मा गांधी के लिए हिंदी केवल एक भाषा नहीं, बल्कि एकता, सादगी और आत्मसम्मान का प्रतीक थी।
वे एक ऐसे भारत का सपना देखते थे जहाँ हर व्यक्ति, चाहे वह किसी भी राज्य या धर्म का हो, एक साझा भाषा के माध्यम से संवाद कर सके और एक-दूसरे को समझ सके।

उनकी दृष्टि में हिंदी किसी पर थोपने की वस्तु नहीं थी, बल्कि दिलों को जोड़ने का माध्यम थी।
आज जब हम उनके विचारों को स्मरण करते हैं, तो याद रखना चाहिए —
गांधीजी का हिंदी प्रेम राष्ट्र की आत्मा से जुड़ा था, न कि राजनीति से।

हिंदी के प्रति उनका आग्रह एक संदेश था —

“भाषा वही सशक्त है, जो सबकी हो और सबको जोड़ सके।”


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