मौन समाज — जब कोई राष्ट्र सुनना छोड़ देता है



मौन समाज — जब कोई राष्ट्र सुनना छोड़ देता है

हर सभ्यता की धड़कन उसकी कला और विचार में बसती है।
कला प्रश्न पूछती है, विचार चेतना जगाता है, और साहित्य समाज का दर्पण होता है।
पर जब समाज ही सुनना बंद कर दे,
जब न कोई प्रशंसा करे, न आलोचना — बस मौन रहे,
तो वह मौन, शांति नहीं होता — वह पतन होता है।

हम ऐसे समय में जी रहे हैं,
जहाँ मौन ने समझ को बदल दिया है।
लोग निरंतर स्क्रॉल करते हैं,
पर रुककर महसूस नहीं करते।
हर कोई प्रतिक्रिया देना चाहता है,
पर कोई चिंतन नहीं करना चाहता।
अब हमारी दुनिया में यह तय होता है कि
किस विचार को सुना जाएगा — एल्गोरिदम के आधार पर,
न कि संवेदना या सत्य के आधार पर।

कभी यही भूमि थी,
जहाँ बुद्ध ने मौन में सत्य खोजा,
गांधी ने अहिंसा से आवाज़ उठाई,
टैगोर ने स्वतंत्रता के गीत गाए,
और अंबेडकर ने संविधान लिखा।
पर आज,
विचार दम तोड़ रहा है,
कला शोर में गुम है,
और संवेदना धीरे-धीरे मर रही है।

जब कोई समाज किसी और की राय पर जीने लगे,
जब उसमें स्वतंत्र सोचने का साहस न बचे,
तो वह धीरे-धीरे खोखला हो जाता है।
जब कवि अपनी कविता से डरने लगे,
चित्रकार अपने रंगों से मुँह मोड़ ले,
विचारक अपने शब्दों को सेंसर करने लगे —
तो यह केवल व्यक्ति की हार नहीं,
पूरे राष्ट्र की आत्मा का पतन है।

यह “मौन समाज” हिंसा से नहीं मारता,
यह उपेक्षा से मारता है।
यह किताबें नहीं जलाता,
बस उन्हें पढ़ता नहीं।
यह कला से नफरत नहीं करता,
बस उसे भूल जाता है।

कला, साहित्य और संस्कृति —
ये किसी सभ्यता की सजावट नहीं,
उसका प्राण हैं।
और जो समाज अपने प्राणों से ही डरने लगे,
वह अधिक दिन जीवित नहीं रह सकता।

फिर भी,
आशा अब भी बची है।
कुछ पागल कवि अब भी लिख रहे हैं,
कुछ जिद्दी आत्माएँ अब भी रच रही हैं,
कुछ मौन साधक अब भी बोल रहे हैं —
बिना शब्दों के।

क्योंकि वे जानते हैं —
कला मरती नहीं,
भले समाज सो जाए।
सत्य रुकता नहीं,
भले मंच खाली रह जाए।

एक दिन,
जब कोई बच्चा यह पूछेगा —
“हमने सोचना क्यों छोड़ दिया?”
तब शायद यह समाज जागेगा।
और उस दिन फिर से
कला जन्म लेगी,
विचार बोलेगा,
और आत्मा —
फिर से जीवित हो उठेगी।



Comments