भाई का मिलन

भाई का मिलन
✍️ रूपेश रंजन




भाई का मिलन हुआ,
चोटे भाई के घर पर,
मौका था — पिता की बीमारी का।

गाँव है बत्तीस किलोमीटर दूर,
जहाँ अब कोई नहीं रहता,
अंधेरे के हवाले कर दिया गया है घर,
पुर्खों की यादें भटक रही हैं गलियों में,
कोई दिया-बाती के लिए भी नहीं है वहाँ।

सबको शहर आना है,
बच्चों को पढ़ाने के लिए,
एक साफ-सुथरी ज़िन्दगी के लिए।
मिट्टी से दूर —
क्योंकि मिट्टी गंदा कर देती है हाथ और पैर।
खैर, इसमें कुछ किया नहीं जा सकता।

जिस बाबा ने अपने
मेहनत और पसीने की कमाई से घर बनवाया था,
वो अब छोटे बेटे के साथ रहते हैं
पिछले बीस सालों से —
एक मार्मिक और विभत्स सत्य।




भाई का घर नौ किलोमीटर दूर,
वहीं हुआ यह मिलन —
जहाँ अब बाबा रहते हैं
छोटे बेटे, बहू, दो पोतियों और एक पोते के साथ।

तीन महीने से बात नहीं हो रही थी
दोनों भाइयों के बीच,
छठ में भी छोटा भाई
गाँव नहीं गया था।
इतना मन-मुटाव —
जैसे औरतों की लड़ाई।

वजह थी — पाँच हज़ार रुपये।
बड़े भाई ने हिस्सा लिया,
सोलह हज़ार में आम बिका था।
तीस साल में पहली बार लिया था हिस्सा,
फिर भी बुरा लग गया।

अब तो गाँव कोई नहीं जाता,
फिर भी सारा हिस्सा
अकेले चाहिए छोटे को…




समय बदल गया है,
पर रिश्तों की दरारें वही हैं —
जहाँ कभी बचपन हँसता था,
अब वहाँ सन्नाटा बोलता है।

घर अब भी खड़ा है,
पर उसमें अब अपनापन नहीं बसता।
दीवारों ने सब देखा है —
कैसे प्यार पैसों में बँट गया,
और भाई का मिलन
सिर्फ बीमारी के बहाने रह गया।

रूपेश रंजन

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