अगर मैं पुनर्जन्म में विश्वास नहीं करता, तो क्या फिर भी भगवद् गीता मेरे लिए प्रासंगिक है?



अगर मैं पुनर्जन्म में विश्वास नहीं करता, तो क्या फिर भी भगवद् गीता मेरे लिए प्रासंगिक है?

लेखक: रूपेश रंजन


प्रस्तावना

दुनिया के तमाम धार्मिक और दार्शनिक ग्रंथों में भगवद् गीता एक ऐसी रचना है जिसने समय, संस्कृति और आस्था की सीमाएँ पार कर ली हैं। यह केवल एक धार्मिक ग्रंथ नहीं, बल्कि जीवन के गहरे प्रश्नों का उत्तर देने वाली एक संवादात्मक यात्रा है।
लेकिन एक प्रश्न अक्सर आधुनिक विचारशील व्यक्ति के मन में उठता है — यदि मैं पुनर्जन्म में विश्वास नहीं करता, तो क्या गीता मेरे लिए कुछ अर्थ रखती है?
यह प्रश्न आस्था का नहीं, बल्कि आत्मचिंतन का है — क्योंकि गीता का सार किसी धर्म से नहीं, बल्कि मानवता से जुड़ा हुआ है।


धर्म से परे: जीवन का दर्शन

गीता का हृदयस्थ भाव धर्म या कर्मकांड में नहीं, बल्कि मानव मन के संघर्षों में है। कुरुक्षेत्र का युद्ध केवल बाहरी नहीं है — यह हर व्यक्ति के भीतर का युद्ध है, जहाँ अर्जुन की तरह हम सभी कर्तव्य और मोह, भय और विवेक, सत्य और सुविधा के बीच उलझे रहते हैं।
पुनर्जन्म की अवधारणा को मानना आवश्यक नहीं है; अर्जुन का द्वंद्व तो हर युग के इंसान का है।
गीता इसलिए नहीं महान है कि वह किसी धर्म की पुस्तक है, बल्कि इसलिए कि वह जीवन जीने की कला सिखाती है


फल की चिंता छोड़ कर्म में समर्पण

गीता का सबसे प्रसिद्ध सूत्र — “कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन” — यह नहीं कहता कि जीवन को त्याग दो, बल्कि यह सिखाता है कि कर्म करो, पर परिणाम की चिंता में मत उलझो।
यह सिद्धांत पुनर्जन्म या स्वर्ग-नरक से नहीं जुड़ा है; यह इस जीवन की शांति से जुड़ा है।
आज की प्रतिस्पर्धा और परिणाम-केन्द्रित दुनिया में यह संदेश अत्यंत प्रासंगिक है — सच्ची स्वतंत्रता तब मिलती है जब हम अपना कार्य पूरी निष्ठा से करें, पर उसके फल से अपने मन को न बाँधें।


विरक्ति का मनोविज्ञान

कृष्ण जब अर्जुन से कहते हैं कि आसक्ति छोड़ो, तो उनका अर्थ त्याग नहीं, बल्कि मनोवैज्ञानिक संतुलन है।
विरक्ति का मतलब जीवन से दूरी नहीं, बल्कि हर परिस्थिति में मन की स्थिरता है।
जो व्यक्ति परिणामों, लोगों या वस्तुओं से अत्यधिक जुड़ जाता है, वही दुखी होता है।
पुनर्जन्म में विश्वास हो या न हो, यह सत्य सार्वभौमिक है — सुख वहीं है जहाँ मन का संतुलन है।


नैतिक साहस और कर्तव्य का धर्म

गीता केवल ध्यान या दर्शन की नहीं, बल्कि नैतिक साहस की भी शिक्षा देती है।
अर्जुन का भ्रम आधुनिक मनुष्य की उलझन है — जब हमें सही और आसान रास्ते में से एक चुनना होता है।
कृष्ण का संदेश स्पष्ट है — कर्तव्य का पालन करो, भले ही दुनिया तुम्हें न समझे।
सच्ची वीरता परिणाम में नहीं, बल्कि सत्य के साथ खड़े रहने में है।
इस दृष्टि से गीता आज भी नैतिक नेतृत्व और सामाजिक जिम्मेदारी का मार्गदर्शन करती है।


आत्म-खोज की यात्रा

अंततः भगवद् गीता आत्म-खोज की पुस्तक है।
यह हमें भीतर झाँकने को कहती है — अपने वास्तविक स्वरूप को पहचानने के लिए।
चाहे आप कृष्ण को ईश्वर मानें या अंतःकरण की आवाज़, गीता का संदेश यही है —
स्वयं को जानो, और जीवन के हर द्वंद्व से ऊपर उठो।


निष्कर्ष: विश्वास से परे बुद्धि की रोशनी

गीता का अध्ययन किसी धार्मिक आस्था पर नहीं, बल्कि मानव चिंतन पर आधारित है।
यदि आप पुनर्जन्म को नहीं मानते, तब भी गीता आपके लिए उतनी ही प्रासंगिक है — क्योंकि वह जीवन में संतुलन, कर्म में निष्ठा और मन में शांति की राह दिखाती है।
कृष्ण का संदेश हर मनुष्य के लिए है —
“अपने आप को ऊपर उठाओ, खुद को गिरने मत दो।”
यह आस्था की नहीं, आत्म-प्रेरणा की पुकार है — जो हर युग में, हर इंसान के भीतर गूँजती है।


समापन टिप्पणी

गीता को समझने के लिए आपको “विश्वास” की नहीं, बल्कि “खोज” की आवश्यकता है।
यह पुस्तक अगले जन्म की नहीं, इस जन्म की यात्रा का मार्गदर्शन करती है।
और जब आप इसे मन से पढ़ते हैं, तो पाएँगे कि गीता धर्म की नहीं, बल्कि जीवन की पुस्तक है — जो सिखाती है कि कैसे जिया जाए, कैसे सोचा जाए, और कैसे शांति पाई जाए।


लेखक परिचय

रूपेश रंजन एक लेखक, कवि और शोधकर्ता हैं, जिन्होंने गांधीवाद, भारतीय दर्शन और मानवीय मूल्यों पर कई रचनाएँ लिखी हैं।
उन्होंने महात्मा गांधी और डॉ. भीमराव अंबेडकर के विचारों पर शोध-पत्र तैयार किए हैं, साथ ही शिक्षा और सामाजिक परिवर्तन पर भी सक्रिय रूप से लेखन कर रहे हैं।
उनकी रचनाएँ मानवीय संवेदना, नैतिकता और आत्मबोध के गहरे स्वर को अभिव्यक्त करती हैं।



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