जन्म-मरण के चक्र से मुक्ति: अधिकांश दर्शनों की आधारशिला
जन्म-मरण के चक्र से मुक्ति: अधिकांश दर्शनों की आधारशिला
मानव सभ्यता के आरंभ से ही जीवन के प्रश्न मनुष्य को बेचैन करते रहे हैं—“हम कौन हैं?”, “कहाँ से आए हैं?”, “हम बार-बार क्यों जन्म लेते हैं?”, “क्या इस चक्र का कोई अंत है?”
इन्हीं प्रश्नों ने विश्व की कई दार्शनिक और आध्यात्मिक परंपराओं को जन्म दिया। और आश्चर्य की बात यह है कि विभिन्न संस्कृतियों, भाषाओं और कालखंडों में पनपे अधिकांश दर्शन एक बिंदु पर आकर मिलते हैं—जन्म-मरण के अंतहीन चक्र से मुक्ति का मार्ग।
जीवन का चक्र: एक सार्वभौमिक अवधारणा
भिन्न नाम, भिन्न प्रतीक—लेकिन विचार लगभग समान।
भारतीय दर्शन इसे संसार कहता है, बौद्ध परंपरा इसे भव-चक्र कहती है, जैन दर्शन कर्म-बंधन के रूप में समझाता है, और यूनानी रहस्यवाद भी आत्मा की विभिन्न अवस्थाओं की यात्रा की कल्पना करता है।
सभी यह स्वीकार करते हैं कि मनुष्य केवल शरीर नहीं है; वह एक सतत यात्रा करने वाली चेतना है, जो अनुभव, कर्म और इच्छाओं के कारण बार-बार नए शरीर ग्रहण करती है।
क्यों चाहते हैं दर्शन—मुक्ति?
जीवन के सुख भी हैं, पर दुख अधिक स्थायी प्रतीत होते हैं।
जन्म, रोग, वृद्धावस्था, मृत्यु—ये चार अनुभव किसी भी मनुष्य को यह सोचने पर मजबूर कर देते हैं कि क्या जीवन केवल पीड़ा का दोहराव है?
यहीं से उत्पन्न होती है “मुक्ति” की आकांक्षा।
मुक्ति का अर्थ यह नहीं कि मनुष्य जीवन से भागे, बल्कि यह कि वह आवश्यकता से जन्म लेने के चक्र से मुक्त हो जाए और एक उच्च, शांत, स्थायी अवस्था में पहुंचे।
विभिन्न दर्शनों के दृष्टिकोण
1. हिंदू दर्शन — मोक्ष
वेदांत कहता है कि जीव का वास्तविक स्वरूप ब्रह्म है, और जब यह आत्मज्ञान हो जाता है कि ‘मैं वही हूँ’, तब जन्म-मरण का चक्र समाप्त हो जाता है।
भक्ति परंपरा कहती है—समर्पण और प्रेम से ईश्वर से एकत्व ही मुक्ति है।
योग कहता है—चित्त की वृत्तियों के शांत होने पर आत्मा अपने स्वरूप में स्थित हो जाती है।
2. बौद्ध दर्शन — निर्वाण
यह कोई दैवी प्रसाद नहीं, बल्कि मन की आग का शांत होना है।
जब व्यक्ति तृष्णा, क्रोध, मोह जैसे मानसिक आवेगों को समाप्त कर देता है, तब वह उस चक्र से बाहर निकल जाता है जो उसे बार-बार जन्म की ओर धकेलता है।
3. जैन दर्शन — केवलज्ञान और मोक्ष
आत्मा कर्मों की सूक्ष्म परतों से ढकी रहती है।
तप, अहिंसा, सत्य और संयम के माध्यम से जब ये परतें हटती हैं, तब आत्मा अपनी पूर्ण शक्ति—केवलज्ञान—को प्राप्त कर लेती है और जन्म नहीं लेती।
4. सूफी और रहस्यवादी परंपराएँ
अहंकार और वासनाओं की पकड़ ढीली होने पर आत्मा “मूल स्रोत” में लौट जाती है।
यह लौटना ही मुक्ति है—एक प्रेमपूर्ण विस्तार में विलीन होना।
मुक्ति क्यों एक शाश्वत विषय है?
क्योंकि मनुष्य भीतर से स्थायित्व चाहता है।
वह जानता है कि संसार क्षणभंगुर है, संबंध अस्थायी हैं, और इच्छाएँ अनंत।
इसलिए दुनिया के सारे दर्शन अंततः मनुष्य को उसी दिशा में ले जाते हैं जहाँ वह अपने भीतर की स्थायी रोशनी को पहचान सके—वह स्थान जहाँ न जन्म है, न मृत्यु।
मुक्ति का मार्ग: बाहरी नहीं, भीतर की यात्रा
मुक्ति कोई गंतव्य नहीं, बल्कि चेतना की एक अवस्था है।
यह प्रश्नों से बचने में नहीं, बल्कि प्रश्नों के मूल को समझने में है।
जब मनुष्य स्वयं को शरीर से अधिक, विचारों से अधिक, अहंकार से अधिक समझ लेता है, तब वह स्वाभाविक रूप से उस चक्र से ऊपर उठने लगता है जो उसे बाँधे हुए था।
निष्कर्ष
अधिकांश दर्शनों का मूल संदेश यही है—
“मनुष्य अपने वास्तविक स्वरूप को पहचान ले, तो जन्म-मरण का चक्र उसके लिए अप्रासंगिक हो जाता है।”
मुक्ति कोई धार्मिक उपलब्धि नहीं; यह एक गहरी मानवीय खोज है—
अपनी असली पहचान, अपनी प्रकाशमय चेतना, और अपनी अनंत स्वतंत्रता की खोज।
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