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क्या ही मरूँगा मैं, कभी नहीं मर सकता मैं।
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तू सोच, मैं लिखूँगा, तेरे लिए ही, हर लफ़्ज़ तेरे नाम का कर दूँगा।
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तू सोच, मैं लिखूँगा – हर अल्फ़ाज़ को तेरे ख़्याल की ख़ुशबू दूँगा...
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क्या ही मरूँगा मैं, कभी नहीं मर सकता मैं।
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खलता तो बहुत कुछ है, पर उसका मुझे धोखा देना
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दिल को सुकून था, वो भी जुदा हो गई, उम्मीद-ए-ज़िन्दगी मेरी ख़फा हो गई।
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ले चलो न फिर वहीं, जहाँ ख़्वाब भी जागते हैं और ख़ामोशियाँ भी बातें करती हैं...
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नहीं मिलती है मुझे वफ़ाएँ, ढूँढ़ते-ढूँढ़ते कई जनम बीते...
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नहीं मिलती मुझे वफ़ाएँ, तलाश में मेरी सदियाँ गुज़र गईं...
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